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गौतम रास : परिशीलन
से पूर्व की है क्योंकि १२११ में जिनदत्तसूरि का स्वर्गवास हो गया था।
राजस्थानी-गुर्जर साहित्य की रासो परम्परा में जितनी रचनाएँ लिखी गईं वे सब जैन कवियों की हैं और जैन धर्म से सम्बद्ध हैं । छोटे आकार के ये ग्रन्थ संख्या में अनेक हैं और कहा जाता है कि वि० सं० १७०० तक प्रायः प्रत्येक दशाब्दी में एक नहीं अनेकों ग्रन्थ रचे जाते रहे हैं । इनमें सबसे प्राचीन "भरतेश्वर-बाहुबली रास" और "बुद्धिरास" हैं जिनके रचयिता शालिभद्रसूरि हैं, जो वि० सं० १२४१ में उपस्थित थे। इनमें से प्रथम में भगवान् ऋषभदेव के दो पुत्रों के बीच राजसत्ता के लिए परस्पर संघर्ष की कथा वीर रस प्रधान शैली में २०३ छंदों में निबद्ध को गई है। दूसरी रचना में केवल नीति प्रधान उपदेश के ६३ छन्द हैं । इससे रासो-परम्परा की प्राचीनता तो प्रमाणित होती है किन्तु इसके स्वरूप-निर्धारण की समस्या नहीं सुलझती।
विद्वानों ने "रासो' शब्द की उत्पत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से की है । प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल इसे "रसायन' का अपभ्रंश मानते हैं (हिन्दी साहित्य का इतिहास) । काशी के विन्ध्येश्वरी प्रसाद दुबे के मतानुसार रासो का मूल शब्द "राजयशः" है, तो अन्य विद्वान ने इसे "रहस्य" से बना बताया है। श्री पोपटलाल शाह इसे “रस'' से व्युत्पन्न मानते हैं । “राजसुत'' शब्द से भी इसकी व्युत्पत्ति बताई गई है । "पृथ्वीराज रासो' के सम्पादक मोहनलाल विष्णु पंड्या के अनुसार “रासो" शब्द संस्कृत के "रास" या "रासक" शब्द से बना है । यही मत प्रामाणिक है, शेष कल्पना-मात्र लगते हैं । संस्कृत का
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