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११.
गौतम रास : परिशीलन
२३ से ३० तक के पद्य २५ मात्रा के देश्य छन्द हैं, यति ११, १४ पर है।
जिहं जिहं दीजइ दिक्ख, तिहं तिहं केवल उपजइ ए, आप कनइ अणहुंत, गोयम दीजई दान इम । गुरु ऊपरि गुरु-भत्ति, सामी गोयम ऊपनिय, इणि छल केवल नाण, रागज राखइ रंग भरइ ॥२४॥
गौतम स्वामी जहाँ-जहाँ जिस-जिस को भी प्रव्रज्या/ दीक्षा प्रदान करते थे, वहाँ-वहाँ वे सभी कैवल्य लक्ष्मी केवलज्ञान का वरण कर लेते थे। वे स्वयं केवलज्ञान से रहित थे, पर स्वहस्तदीक्षित शिष्यों को सर्वोच्च केवलज्ञान को दान रूप में वितरित करते ही थे।
अपने गुरु प्रभु महावीर के प्रति अटूट राग/प्रेम के ही कारण योग्य हाते हुए भी वे कैवल्य से वंचित थे । यदि वे राग-भंग कर दें तो उन्हें उसो क्षण कैवल्य प्राप्त हो सकता था। अर्थात् अटूट प्रेम और केवलज्ञान के मध्य दाव-पेंच चल रहा था । परन्तु, गौतम स्वामी की मान्यता थी कि, मेरा प्रभु के प्रति जो अतुलनीय प्रेम है वह अक्षुण्ण बना रहे, गुरुराग-रहित कैवल्य लक्ष्मी को मुझे चाहना/आवश्यकता नहीं है । ॥२४॥
जउ अष्टापद सेल, वंदइ चढी चउवीस जिण, प्रातम-लब्धिवसेण, चरम सरीरी सो य मुणि । इय देसणा निसुणेह, गोयम गणहर संचरिय, तापस पनर-सएण, तउ मुणि दीठउ आवतु ए ॥२५॥
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