Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Devendrasuri
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg

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Page 9
________________ महाफलने सूचवनाएं आ पद्य खरेखर मनन करवा योग्य छे. जो बराबर भावसाधुनां साते लक्षणोनुं अनुकरण करवामां आवे, तो उपरना पद्यमां कहेल महा फळ मळे तेमां काइपण आश्चर्य नथी.. ग्रंथकारे ते भावसाधुनां सात लिंगोने सिद्ध करवा घणी रमणीय दृष्टांत कथाओ आपेली छे. कथाओनो ऊपन्यास घणे भागे मागधी भाषामां करेलो छ, अने कोइ कोइ भाग संस्कृतमां पण आपलो छे. ते उपरथी ग्रंथकारनी बंने भाषानी विद्वत्ता सारी रीते चळकती जणाइ आवे छे. ग्रंथकारे आ बधा लेखनो उद्देश एवो लीधेलो छ के, जेनामां एकवीश गुण होय, तेज पुरुष आ ग्रंथमा वर्णवेला धर्म रत्नने योग्य थाय छे. तेनी योग्यता सिद्ध करवाने धर्म रत्नना अर्थी देश चारित्री, तथा सर्व चारित्रीनां जे चिन्हो लत्वज्ञः पुरुषोए सिद्धांतमा कहेला छ, ते बधां ते ते विषयने प्रसंगे ग्रंथकारे विवेचनपूर्वक दर्शाव्यां छ. जैन सिद्धांतरुप महासागरमा भिन्न भिन्न स्थळे दर्शावेला उपयोगी विषयो वर्तमान काळना अल्पायु अने अल्प बुद्धिवाला जीवो समजी शके तेम नथी, ते माटे पोतानो तथा परनो अनुग्रह करवाथी इच्छा राखनारा प्राचीन आचार्योए आवा उपयोगी ग्रंथो लखी खरेखर जैन प्रजानो महान् उपकार करेलो छे. विद्वच्छिरोमणि आ' ग्रंथना की देवेंद्रसारिए ग्रंथने अंते पोतानी प्रशस्ति आपेली छ. तेमां तेओ पोतानी गुरुपरंपरा विषे सारं स्पष्टीकरण करे छे. श्रीवीरमभुयी गौतम, सुधर्मा अने जंबूस्वामी यया. तेमनाथी परंपराए चित्रवाल गच्छमां भुवनचंद्रसूरि थया. तेमना शिष्य देवभद्रगणी अने तेमना जगविख्यात जगचंद्रसूरि थया हता. तेमने बे शिष्यो थया, देवेंद्रसूरि अने विजयचंद्रसूरि. ते देवेंद्रमुरिए धर्म रत्ननी टीका रचेली छे, अने वेनुं नाम मुखबोधा राखेल्लु छे.

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