Book Title: Dharmratna Prakaran Part 03
Author(s): Devendrasuri
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg

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Page 8
________________ शुद्धि- चार श्रद्धानां लिंगो उपर सारुं विवेचन करेलुं छे. ते पछी भावसाधुना श्रीजा प्रज्ञापनीयपणाना लिंगनुं वर्णन करेलुं छे, जेमां मूढ जेवा शिष्यने प्रज्ञापनीय - एटले गुरुए सूत्रार्थना बोधने लायक गणवो जोइए, ए वात साबीत करी छे, अने ते उपर कांपिल्य नगरनो राजा सुनंद के जे आखरे राजर्षि थयो हतो, तेनी रसिक कथा आपवामां आवी छे. ते पछी " क्रियामां प्रमाद न राखवो " ए भावसाधुना चोथा लिंगनुं यथार्थ स्वरुप बतावेलुं छे, अने ते दृष्टांत आधी सारी ते सिद्ध करेलुं छे. ते पछी " जे अनुष्टान पोताथी थइ शके तेनो आरंभ करवो " ए भावसाधुना पांचमा लिंगनी व्याख्या करी, ते उपर घं सुबोधक विवेचन करेलुं छे. ते पछी गुण उपर अनुराग करवारूप भावसाधुनुं छठु लिंग वर्णलुं छे. गुण उपर अनुराग करवाथी केवा केवा लाभ थाय छे, ते दृष्टांतपूर्वक सिद्ध करेलुं छे. J त्यारबाद गुरुनी आराधना करवारुप सातमा लिंगनुं स्वरूप दर्शान्युं छे. ए स्वरुपने अंगे बीजा घणा उपयोगी विषयोतुं ज्ञान आपी ग्रंथकारे भावसाधुन साते लिंगोनी समाप्ति करी छे, अने ते सात लिंगने धारण करनार भावसाधु परिपूर्ण चारित्री बने छे, अने ते परंपराए केव लाभ मेळवे छे ? तेने माटे नीचेनी सदा स्मरणीय एवी गाथा लखी ग्रंथकार ए विषयनी समाप्ति करे छे. इय सत्तलक्खणधरो - होइ चरित्ती तओ य नियमेण । कल्लाणपरंपरलाभ - जोगओ लहइसिवसुक्खं ॥ १ ॥ 46 ए रीते सात लिंगने धारण करनार चारित्री थाय छे, अने तेज कल्याणनी परंपराना लाभना योगे करीने अवश्य शिवसुखने पामे छे. ११.

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