Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 24
________________ (26) रागदोप मोहभाव जीवको सुभावनाहिं, जीवको सुभाव सुद्धचेतन वखानिये / दर्व कर्मरूप ते तौ भिन्न ही विराजते हैं, तिनको मिलाप कहो कैसें करि मानिये // ऐसो भेद ज्ञान जाके हिरदै प्रगट भयौ, अमल अबाधित अखंड परमानिये / सोई सुविचच्छन मुकत भयौ तिहुँकाल, जानी निज चाल पर चाल भूलि भानियै // 75 // मूढदशा वर्णन। जैसैं गजराज कोई पाहनफैटिक जोई, प्रतिबिंब लखि सोई दंत दंतसौं अस्यौ / वानर मूठी विसेख पराधीन धरै भेख, कूपमाहिं सिंह देख सिंह देखकै पस्यौ / कांचभौनमाहिं स्वान सोर करै आप जान, नलिनीको सूवा मान मोहि किन पकस्यौ / तैसैं पसु-मोह व्याप परहीकौं कहै आप, भ्रमसेती आपनपो आपन ही विसस्यौ // 76 // जीवकी पूर्वदशा। स्वपर न भेद पायौ परहीसौं मन लायौ, मन न लगायौ निजआतम सरूपसौं। रागदोषमाहिं सूता विभ्रम अनेक गूता, भयौ नाहिं बूता जो निकसौं भवकूपसौं // - विद्वान् / 2 स्फटिक पत्थर / 3 देखकरके / 4 कांचका घर / 5 सोता 6 गूंथा, उलझा रहा। 7 सामर्थ्य / ( 27 ) अव मिथ्यातम मान प्रगटी प्रबोध-भान, महा मुखदान आन मोह दौर धृपमा / आप आपरूप जान्यो परहीकों पर मान्या, आपरस सान्यो ठान्या नेह सिवभूपमा // 77 / / मानवर्णन / सरसों समान मुख नहीं कहूं गृहमाहिं, दुःख ती अपार मन कहाली बताइये / तात मात सुत नारि स्वारथके सगे भात, देह तो चल न साथ और कौन गाइये // नरभौ सफल कीजै और स्वाद छांड़ि दीजै, क्रोध मान माया लोभ चित्तमें न लाइये / ज्ञानके प्रकासनको सिद्धथान बासनको, जीमैं ऐसी आवे है कि जोगी होइ जाइयै // 78 ____ अशोकपुष्पमंजरी छंद। रागभाव टारिकै सु दोपकों विडारिक, सु मोहभाव गारिकै निहारि चेतनामई / कर्मकौं प्रहारिकै सु भर्मभाव डारिक, सुचर्म दृष्टि दारिकै विचार सुद्धता लई // ज्ञानभाव धारिकै सु दृष्टिकों पसारिक, लखौ सरूप तारिकै अपार मुद्धता खई। मत्तभाव मारिकै सु मारभाव छारिकै, सु मोखकौं निहारिकै विहारकों विदा दई 1 ज्ञानसूर्य / 2 मुग्धता, अज्ञान / Scanned with CamScanner

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