Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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________________ (192) आसव वेद // 36 // जानपना दो विध लसे, विपै निरविष भेटी निरविषई संवर लहै, विषई आस्रव वेद प्रथम जीवसरधानसों, करि वैराग उपाय। (193) सव आगमको सार जो, सब साधनको धेव। जाकी पूर्जे इंद्र सौ, सो हम पायौ देव // 48 // सोहं सोहं नित जपे, पूजा आगम सार। संतसंगतिमें वैठना, एक करै व्यौहार // 49 // अध्यातम पंचासिका, माहिं कह्यौ जो सार / द्यानत ताहि लगे रहौ, सब संसार असार // 50 // . इति अध्यात्मपंचासिका। देय // 38 // दोय // 39 // यासौं मोख है, यही बात सुखदाय // 3 // पदलसौं चेतन वंध्यौ, यह कथनी है हेय / जीव बंध्यौ निज भावसों, यही कथन आदेयर बंध लखै निज औरसौं, उद्दिम करै न कोय। आप बंध्यौ निजसौं समझ, त्याग करै सिव होय जथा भूपकौं देखिकै, ठौर रीतिको जान / तव धन अभिलाखी पुरुप, सेवा करै प्रधान // तथा जीव सरधान करि, जानै गुन परजाय। सेवै सिव धन आस धरि, समतासों मिलि जाय. तीन भेद व्यवहारसौं, सरव जीव सम ठाम / बहिरंतर परमातमा, निह. चेतनराम // 42 // कुगुरु-कुदेव-कुधर्मरत, अहंबुद्धि सब ठौर / हित अनहित सरधै नहीं, मूढ़नमें सिरमौर // 43 // आप आप पर पर लखै, हेय उपादे ग्यान / अव्रती देशव्रती महा,-व्रती सबै मतिमान // 44 // जा पदमै सव पद लसैं, दरपन ज्यौं अविकार / सकल विकल परमातमा, नित्य निरंजन सार // 45 // बहिरातमके भाव तजि, अंतर आतम होय / परमातम ध्यावै सदा, परमातम है सोय // 46 // बूंद उदधि मिलि होत दधि, वाती फरस प्रकास / त्यों परमातम होत हैं, परमातम अभ्यास // 47 // ध. वि. 13 Scanned with CamScanner

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