Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 115
________________ हिरदै धरौं। मैं देव नित अरहंत चाहूं, सिद्धको समि (202) प्रतिमा दिगंवर सदा चाई, ध्यान आसन मोहना। सब करमसों में छुटा चाहं, सिय लहीं जहां मोह ना॥६॥ मैं साहमीको संग चाहूं, मीत तिनहीकी करी / मैं परयके उपवास चाहूं, सरव आरंभ परिहरी // इस दुखम पंचम काल माहीं, कुल सरावग में लहा। सब महाव्रत धरि सकू नाहीं, निवल तन मैंने गहा // 7 // यह भावना उत्तम सदा, भाऊं सुनी जिनराय जी। तुम कृपानाथ अनाथ द्यानत, दया करनी न्याय जी॥ दुख नास कर्म विनास ग्यान, प्रकास मोकों कीजिये। करि सुगतिगमन समाधिमरन, भगति चरनकी दीजियै // 8 // भ्रम-जुरी // 2 // (208) धर्म-चाह गीत / चाई, सिद्धकी सुमिरन करौं। *सरि गरु मुनि तीन पदम, साध पद हिरदै मैं धरम करुनामई चाहूं, जहां हिंसा रंच ना। मैं सास्त्रग्यान विराग चाहूं, जास, परपंच ना // चौवीस श्रीजिनराज चाहूं, और देव न मन वसै। जिन बीस खेत विदेह चाहूं, बंदतें पातिग नसै॥ गिरनार सिखर समेद चाहूं, चंपापुर पावापुरी। कैलास श्रीजिनधाम चाहूं, भजत भाजै भ्रम-जुरी. नौ तत्त्वका सरधान चाहूं, और तत्त्व न मन धौ षट् दरव गुन परजाय चाहूं, ठीक तासौं भै हरौं। पूजा परम जिनराज चाहूं, और देव नहीं सदा / तिहं कालका मैं जाप चाहूं, पाप नहि लागे कदा // 3 // सम्यक्त दरसन ग्यान चारित, सदा चाहूं भावसौं। दसलच्छनी मैं धरम चाहूं, महा हरप बढ़ावसौं // सोलहौं कारन दुखनिवारन, सदा चाहूं प्रीतिसौं। मैं नित अठाई परव चाहूं, महा मंगल रीतिसौं // 4 // मैं वेद चाखौं सदा चाहूं, आदि अंत निवाहसौं / पाए धरमके चारि चाहूं, अधिक चित्त उछाहसौं॥ मैं दान चाखौं सदा चाहूं, भौन वसि लाहा लहूं। मैं चारि आराधना चाहूं, अंतमैं एही गहूं // 5 // मैं भावना बारहौं चाहूं, भाव निरमल होत है। मैं वरत बारै सदा चाहूं, त्याग भाव उदोत है // इति धर्मचाहगीत / SRRESS ध. वि. 14 Scanned with CamScanner

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