Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 134
________________ (246) भाव उतपात नास परजाय नैन भास, दरवित एक भेद भावकी न वट है। यानत दरव परजाय विकलप जाय, तव सुख पाय जब आप आप रट है // 17 // निह. निहार गुन आतम अमर सदा, विवहार परजाय चेतन मरत है। मरना सुभाव लीजै जीव सत्ता मूल छीजै, जीवरूप विना काको ध्यान को धरत है // अमर सुभाव लखै करुना अतीव होय, दया भाव विना मोखपंथ को चरत है। अविनासी ध्यान दीजै नासी लखि दया कीजै. यही स्वादवादसेती आतमा तरत है // 18 // पट गुनी हानि वृद्धि भाव हैं सुभावहीके, सुद्धभाव लखेंसेती सुद्धरूप भए हैं। सरवथा कहनेकौं आप जिनराजजी हैं, आचारज उवझाय साधु परनए हैं / कुंदकुंद नेमिचंद जिनसेन गुनभद्र, हम किस लेखे माहिं सूधे नाम लए हैं। द्यानत सवद भिन्न तिहूं काल में अखिन्न, सुद्ध ग्यान चिन्न माहिं लीन होय गए हैं // 19 // दोहा / बुद्धिवंत पढ़ि बुधि बढे, अवुधनि बुधि दातार / जीव दरवको कथन सव, कथननिमें सिरदार // 20 // इति पट्गुणी हानिवृद्धि / (217) पूरण-पंचासिका। चिया इकतीसा / नाथनिके नाथ औ अनाथनिके नाथ तुम, तीनलोक नाथ तातें सांचे जिननाथ हो / अष्टादस दोप नास ग्यानजोतकी प्रकास, लोकालोक प्रतिभास सुखरास आथ ही // दीनके दयाल प्रतिपाल मुगुननि-माल, मोखपुर पंथिनकों तुमी एक साथ ही। द्यानतके साहब ही तुमही अजायव हो, पिंड ब्रहमंड माहिं देखनिकौं माथ हौ // 1 // ___ चौवीसा-छंद (आठ रगण) भान भौ-भावना ग्यान लौ लावना, ध्यानकों ध्यावना पावना सार है। स्वामिकौं अच्चिकै कामकौं वच्चिकै, रामकों रच्चिकै सच्चकौं धार है। सल्लकों भेदिकै गलकों छेदिक, अल्लकों वेदिकै खेद खैकार है। रोपकौं नहकै दोपकौं भट्ठकै, सोपकौं लट्ठकै अट्ठकौं जार है // 2 // सवैया इकतीसा। चाहत है सुख पै न गाहत है धर्म जीव, सुखको दिवैया हित भैया नाहिं छतियां / दुखते डरै है पै भरै है अघसेती घट, दुखको करैया भयदैया दिन रतियां // Scanned with CamScanner

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