Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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________________ (250) क्रोध सुई करै करमौंपर,मान सही (1) बढ़ाव। माँ तन तांच॥ नसो कहिलावै पायसौं जूझे। अघसा न अरूझे।। पतारस बूझे। मनसो जु निरंजन सूझै 13 हे परकष्ट निवारत, लोभ सुई तपसौं तन गुरु देवपै कीजिये, दोप सुई न विपै सुख, मोडसई जु लखै सब आपसे, द्यानत सज्जन सोकर पीर सुई पर पीर विडारत, धीर सुई जु कपायसोने नीति सुई जो अनीति निवारत, मीत सुई अघसों न औगुन सो गुन दोप विचारत,जो गुन सो समतारस मंजन सो जु करै मन मंजन, अंजन सो जु निरंजन ध्यान सुई कछु चिंत करे नहीं, ग्यान सुई कछु वात न दान सुई जु विवेकसौं दीजिये, जान सुई दुख जानकै बानि सुई सुभ ग्यान बढ़े घट, ग्यान सुई परमें नहिं म / मंजन सोजु करै मन मंजन, अंजन सोजु निरंजन सह मालिनी। कर कर नर धर्म पर्म सम प्रदाता, हर हर नर पापं दुःख संताप भ्राता। यह जिन उपदेसं सर्व संसार सारं, भवजलनिधि धारं जान चढ़ि (2) होहि पारं // 14 // वसंततिलका। तूही जिनेस करुनाकर दीनबंध, स्वामी त्रिलोकपति ईसुर ग्यानखंध / वंदौं त्रिकाल जगजाल निकाल मोहि, दाता महंत भगवंत प्रसन्न होहि // 15 // सुन्दरी। रहित दोष अठारै देव हैं, गुरु सदा निरग्रंथ सु एव हैं। धरमश्रीजिनभाख प्रमान है, मुकतिपंथ यही सरधान है 16 (251) भुजंगप्रयात / सहे दुःख नर्क निगोदं अपारं, अजी नाहिं छाईत अक्षं विकारं / सहक विवेकी भए जात बारे, भले जी भले जी भले प्राणप्यारे // 17 // करखा (रावं लघु)। अथिर सब जगत वन तनक नहिं कहिं सरन, चतुरगति दुख धरन हरन साता। इक सु अध उरध भुव अन सु तन अन सु तव, असुच पुदगल अधुव तजत ग्याता // ममत असरव करत निरममत सवर रत, सुहित निरजर भरत धरत ध्याता। मुनत त्रिभुवन अचल गुनत अवगम अटल, दुलभ अनभव अमल सिव प्रदाता // 15 // सवैया तेईसा। भूख लगै दुख होहि अनंत, सुखी कहिये किम केवल ग्यानी। खात विलोकत लोक अलोककौं, देखि कुदर्व भखै नहिं पानी खायकै नींद करें सब जीव, न स्वामिॉनींदकी नाम निसानी केवलग्यानीअहार करैं नहिं, सांची दिगंबर ग्रंथकी वानी 19 जिनगुणसम्पत्ति व्रतके तिरेसठ उपवास, छप्पय / . पोड़सकारन जान, ठान पड़िवा व्रत सोलै। पंच कल्यानक सांच, पांच पांचै अघ छोले // दस जनमत दस ग्यान, वीस गुन बीसौं दसमी / Scanned with CamScanner

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