Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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________________ - - तीन लोबानी माहिकाई ध्यावं सुखकाजाजी॥ . (194) अक्षर-बावनी। ॐकार सरव अच्छरको, सब मंत्रनको राजा जी। तीन लोक तिहं काल सरव घट, व्यापि रह्यौ सुखकाजा श्रीजिनवानी माहिं बतायौ, पंच परमपदरूपी जी।" द्यानत दिढ़ मन कोई ध्यावै, सोई मुकत-सरूपी जी अमर नाम साहिबका लीजै, काम सवै तजि दीजैसी आतम पुग्गल जुदे जुदे हैं, और सगा को कीजै जी' इस जग मात पिता सुत नारी, झूठा मोह बढ़ावै जी। ईत भीत जम पकड़ मंगावै, पास न कोई आवै जी॥ 2 // उसका इसका पैसा ठगि ठगि, लछमी घरमैं लावै जी। ऊपर मीठी अंतर कड़वी, वातै बहुत बनावै जी॥ रिन ले सुख हो देते दुख हो, घरका करै संभाला जी। रीस विरानी करै देखिकै, बाहिर रचै दिवाला जी // 3 // लिखै झूठ धन कारन प्रानी, पंचनमैं परवानी जी। लीन भयौ ममतासौं डोले, बोलै अंमृत वानी जी॥ ए नर छलसौं दर्व कमाया, पाप करम करि खाया जी। ऐन मैन (?) नागा हो निकला, तागा रहन न पायाजी // 4 // ओस बंद सम आव तिहारी, करि कारज मनमाहीं जी। औसर जावै फिरि पिछतावै, काम सरै कछु नाहीं जी॥ अंतर करुनाभाव न आने, हिंसा करै घनेरी जी। अहि सम हो परजीव सतावै, पावै दुखकी ढेरी जी // 5 // काम धरमके करै अधूरे, सुख लोरे भरपूरे जी। खाया चाहै आंव गंडेरी, बोवै आक धतूरे जी // दि. अ. मुनियमसाणा येथ (195) मांजर अपदान, ने. गुरुकी सेवा ठानत नाहीं, ग्यान प्रकास निहारे जी। . घरमें दान देय नहिं लोभी, बंछ भोग पियारे जी // 6 // नेक धरमकी वात न भाव, अधरमकी सिरदारी जी। चरचामाहिं बुद्धि नहिं फैले, विकथाकी अधिकारी जी / छिन छिन चिंता करै पराई, अपनी सुधि विसराई जी। जामन मरन अनेक किये ते, सो सुध एक न आई जी // 7 // झूठे सुखकों सुख कर जाना, सुखका भेद न पाया जी। निराकार अविकार निरंजन, सौ ते कबहुं न ध्याया जी। टेक करै वातनिकी प्रानी, झूठे झगडै ठान जी। ठौर ठिकाना पावै नाही, संजम मूल न जाने जी // 8 // डरै आपदासौं निसवासर, पाप करम नहिं त्यागै जी। दृढ़े वाहिर स्वारथ कारन, परमारथ नहिं लागै जी // निसदिन बाँध्यौ आसाफासी, डोलै अचरज भारी जी। तब आसा बंधनसौं छूटै, होय अचल सुखकारी जी // 9 // थिरता गहि तजि फिकर अनाहक, समता मनमें आनौ जी। दरसन ग्यान चरन रतनत्रै, आतमतत्त्व पिछानौ जी॥ धरम दया सब कहें जगतमैं, पाल ते बड़भागी जी। नेम विना कछु बनि नहिं आवै, भावनहोय विरागी जी 10 पंच परम पद हिरदै धरिय, सुरग मुकतिके दाता जी। फिरो अनंत बार चहु गतिमें, रंच न पाई साता जी // बिनासीक संसारदसा सब, धन जोवन घनछाहीं जी। भूला कहां फिरत है प्राणी, कर थिरता मन माहीं जी 11 मंत्र महा नौकार जपो नित, जमैं तिहूं जग इंद्रा जी। यही मंत्र सुनि भए नाग जुग, पदमावति धरनिंद्रा जी // Scanned with CamScanner

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