Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 112
________________ (202) जल कलस न्हुलाय। बनेरसाल // 45 // जैजै उचरंत / पकरी आय॥४६॥ सनी चेतन सोय। को आधार॥४७॥ नकीने बहुवार। अव वस्यौनजाय 48 दखिया होहि। चतर निकाय देव सव आय, छीरोदधि जल कल सीस मुकुट पट भूपन माल, मुकति वधू-वर वनेरसा चदि सुखपाल चले भगवंत, सुर नर खग जै जैसी मात सिवादेवी बिललाय, दौरि पालकी पकरी भई मूरछा सुधि बुधि खोय, ज्यौं त्यौं कीनी चेन अहो पुत्र तुम कुल सिंगार, मुझ दुखियाको को आधा जीव भ्रम्यौ जग दुःख अपार, जनम मरन कीने की निज पर भौ भाखे समझाय, गरभवास अव वस्यौन तुम माता, चाहो सुख मोहि, हमैं दुखी लखि दुखिया है मैं जग तरौं वरौं सिव नार, सुत गुन सुनि तुम हरखौ सार हल वलभद्र कहैं वहु भाय, राज करौ हम सेवै पार राज विनासीसो किह काज, हम पायी परमातमराज दोहाकी ढाल। जै जै स्वामी नेमिजी, नौं स्वपद दातार हो। आप स्वयंभूनें धरी, दिच्छा गढ़ गिरनार हो // 51 // एक सहस नृप साथ ले, सिद्धरूप उर धार हो। इंद्र करी थुति बंदना, सब मिलि बारंवार हो // 52 // वेलासौं उठि पारना, प्रासुक खीर अहार हो। वरदत नृप घरमै भए, पंचाचरज अपार हो // 53 // खग मृग ले फल फूल सो, वर्दै सीस नवाय हो। जाकै दरसन देखतें, जनम बैर मिटि जाय हो // 54 // छप्पन दिनमैं पाइयो, केवल ग्यान अपार हो। समोसरन धनपति कियो, कहत न आवै पार हो // 55 // (203) रजमति अति विललायक, ग्यारह प्रतिमा धार हो। सवै आरजामैं भई, गननी पद सिरदार हो // 56 // सूरज सम तम नासक, ससि सम वचन प्रकास हो / मेघ समान सुखी करे, सुरतरु सम गुणरास हो // 57 // हरि वल सब पूजा करें, पूर्जे इंद्र समस्त हो। गनधर ठाड़े थुति करें, पावें वंछित वस्त हो // 58 // नारायन बलदेवनें, पूछी प्रभुसौं वात हो। द्वारापुर अरु किसनकी, कितनी थिति विख्यात हो॥५९॥ मदके दोष प्रभावतें, द्वीपायन नर-नाह हो / इनतें बारै वर्षमैं, नगर द्वारिकादाह हो // 60 // हरिकों जरदकुमारको, वाण लगैगौ आय हो। तातें संजम लीजिय, घर वासा दुखदाय हो // 61 // किसन दई पुर घोषणा, दिच्छा लो नरनारि हो। मैं काहू रोकों नहीं, नेमि-वचन उर धारि हो॥१२॥ दोहाकी दूसरी ढाल। हो स्वामी भौ जल पार उतार हो। (आंचली) सतभामा रुकमिनि सबै जी, प्रदमनि आदि कुमार / बहुतनिने दिच्छा लई जी, जान अथिर संसार हो // 63 // नगर जरन हरिको मरन जी, कहैं बढ़े विसतार / बलभद्दर दिच्छा धरी जी, भयौ सुरग अवतार हो॥६४॥ पांचौं पांडौनें लई, दिच्छा सहित कुटंव। सुन सुन निज परजायकों जी, जान्यौ जगत विटंब हो६५ 1 आयिकाओंमें / 2 गणनी-अर्जिकाओंके संघकी खामिनी / Scanned with CamScanner

Loading...

Page Navigation
1 ... 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143