Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 83
________________ शीतकालपरीषद / कंज सुरक्षात कपिहूको मद गल जात, दहत पृच्छनि पात रंक रोम खरे हैं। सीतकी विथा अपार पानी जमै बारबार, पान लगै तीर धार लोक दुख भरे हैं॥ तप-भौनमाहिं साधि ध्यान ऊषमा अराधि, नदी तट चौपथमैं कर्मनिसौं अरे हैं। जोगी बड़े धीर वीर पावै भव नीर तीर, देह मोखलच्छि हियँ भद्र भाव धरे हैं // 14 // प्रीष्मकालपरीषह। ग्रीषमको तेज सूर गरमी परत भूर, सूकत है जलपूर धूर पांवकौं धरे। धूप है अगनिरूप लू फुलिंगको सरूप, दिनमैं दुखी अनूप रात नींद को करे / भूमिकी तपतिसौं दसौं दिसा तपै है सैलसिलापर निराधार खरे साध भै हरे / ग्यान जोत उर धार तमकी हरनहार, वंदत हौं पाय जातें मेरे भव भय टरे // 15 // वर्षाकालपरीषह / / स्थाम घटा अति घोर वरसै करत सोर, रहै नाहिं एक ओर मूसलसी धार हैं। मानौं जल पियौ छार सोई वम्यौ है अपार, नदी दौरै टूटि टूटि खरते पहार हैं // कारी निस वीजली गरज और झंझा पौन, / तामें साध वृच्छ तलें ठाड़े निरधार हैं। ( 145) आप सुन ध्यावत है कर्मको बहावत हैं, भोख पावत है नौं सुखकार हैं // 16 // शानको कार्यकारिता / सीत ताप पावसको सहें धीर वीर होय, भेदग्यान भए बिना आपसौं विकल है। तीन कर्म सेती भिक्ष सदा चेतना ही चिन्न, ताकी न खबरि कैसे जगसौं निकल है // बरसौं लौं धूल धोय न्यारिया सुखी न होय, धातकी पिछान बिना दाम एक न लहै / आप ग्यान जानत है साम्य भाव आनत है, घोर तप ठानत है कर्मसौं विकल है // 17 // हितोपदेश / भन्यौ तू अनंती बार सम्यक न लह्यौ सार, ताते देव धर्म गुरू तीनौं ठहराय रे / लाग रह्यौ धन धाम इनसौं है कहा काम, जपै क्यौं न जिन नाम अंत सो सहाय रे // क्रोध है कठिन रोग छिमा ओषधी मनोग, ताको भयौ है सँजोग संगत उपाय रे। . पूरव कमायौ सो तौ इहां आय खायौ अब, करि मन लाय जो पै आर्गे जाय खाय रे // 18 // बाग चलनेकौं त्यार ढीलौ तीरथ मझार, झूठ कहनकौं हुस्यार सांच ना सुहाय रे। देखत तमासा रोज दर्सनको नाहिं खोज, विकथा सुनन चोज सास्त्रकौं रिसाय रे / / - घ. वि. 10 Scanned with CamScanner

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