Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 96
________________ ( 170) एकीभावस्तोत्रभाषा। दोहा। वंदौं श्रीजिनराजपद, रिद्धिसिद्धिदातार। विघनहरन मंगलकरन, दारिद दलन अपार // . . चौपाई। मिथ्याभावकरमव॑ध भयौ, दुरनिवार भव भव दुख दयौ सोसवनास भगतितें होय, रहै न प्रभु दुखकारन कोय // 2 ग्यान जोत अघतमछयकार, अघट प्रकासि कहैं गनधाः मो मन-भवन वसै तुव नाम, तहां न भरम तिमिरको का पूजा गदगद वच मन काय, करों हपे-जल वदन न्हवा विपयव्याल चिरकाल अपार, भा तज तन वंवइ द्वार प्रथम कनकमय भू सब करौ, भविक भाग सुरतै अवतरौ चित-गृह ध्यान-द्वार तुम आय, करौ हेम तन चित्र न काय विन स्वारथ सब जग सुखदाय, जानौ सर्व दर्व परजाय। भगति रची चित-सज्या मोहि, तुम वस दुख-गन कैसे होहि भन्यौ जगत वनमैं चिरकाल, उपज्यौ खेद अगनि विकराल। तुम नय-सुधा-सीत-वावरी, पुन्य उदै लहि सव तप हरी // 6 // गमन प्रभाव कमल ह देव, परमल श्रीजुत कनक अभेव / मो मन परसै तुम सब काय, क्यों न मिलै मुझ सब सुख आया विधि वन तजि सिवसुख घर कियौ,मदन-मानछिनमैं हर लियौ पीत-पात्र वच सुधा पिवंत, विपै रोगरिपु-त्रास हनंत // 6 // तुम ढिग मानसथंभ'जु रहै, रतनरासि वह सोभा लहै। देखत मान रोग छय होय, जद्यपि है पाहनमय सोय 9 1 श्रीवादिराजसूरिके संस्कृत एकीभावस्तोत्रका भावानुवाद / 2 बमीठासर्पका विल / 3 बावड़ी-बापी। (171) मरति-गिरि सपरस वार्य, लगें कर्मरजपुंज पलाय / शान तोहि उर कमल मझार, होइ परम पद जग निस्तार१० भव पायौ दुःख अपार, यादि करत लागै असि-धार / तमसव जान प्रधान कृपाल, करी भगति अब होहु दयाल 11 पी स्वान अंतकी वार, लह्यौ स्वर्ग-सुख सुनि नौकार / जपौं अमल मन तुम भगवान, अचरज कहा बरौं सिवथान॥ तम प्रभु सुद्ध ग्यान-दृगवंत, ताली-भगति विना जो संत / महजरे दृढ़ मोख-किवार, खोल सकै न लहै सुख सार॥१३॥ मकति-पंथ अघतम बहु भस्यौ, गढ़े कलेस विषम विसतस्यौ। खसौं सिवपद पहुंचै कोय!जो तुम वच मन दीप न होय / कर्म धरा आतम निधि भूरि, दवी केवी पावै नहिं कूर / भगति कुदाल खोद लैं संत, विलसैं परमानंद तुरंत // 15 // स्यादवाद हिमगिरिसौं चली,तुम पद परसि उदधि सिव रली। भगति गंगमैं मो मन न्हाय, क्यों न पाप मल कलुप तजाय 16 परमातम थिरपद सुखमई, मैं सदोष तुम सम वुध ठई। यदपि असत यह ध्यान तुम्हार, तदपि सुवांछित फलदातार वचन उदधिसव जग विसतस्यौ,स्याद लहरि मिथ्यामल हस्यौ। थिर मन द्वादसांगमैं धरै, ग्यान सुधा पी जम-भय हरै 18 भूषन वसन कुसुम असि गहै, सोभा रंचक देव न लहैं। तुम निपरिग्रह अभै मनोग, कौन काज भूपन असि जोग१९ तुम सोभा नहिं इंद्र जु नयौ, एकाअवतारी सो भयो / लोकनाथभौ-वारिधि पोत,मुकति-कंत इह विध थुति होत // 1 वायु-हवा / 2 कभी। Scanned with CamScanner

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