Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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________________ (180) यतिभावनाष्टक। सवैया इकतीसा। जगत उदास आपकों प्रकास संग नास, धर सुभ व्रत रास वनवास बसे हैं। मोह कर्मको प्रभाव संकल्प विकल्प भाव, सबको अभाव करि अंतरकौं धसे हैं। प्रानायाम बिध साध ध्यानरीतिकौं अराध, पौन मन ग्यान थिर एक रूप लसे हैं। परमानंद लीन धीर मेर ज्यौं अचल बीर, नमौं साध पायनिकौं देखें दुख नसे हैं // 1 // मनकौं निरोध इंद्री सांपकी जहर सोध, सासोस्वास पौन सोऊ थिर भाव करी है। सूनी कंदरामैं पैठि वैठि पदमासनसौं, सिव अभिलाखा अभिलाख सब हरी है / तजि राग दोप व्याध समता चेतन साध, धीरजसौं अंतर सरूप दिष्टि धरी है। ऐसी दसा होयगी हमारी कव भगवान, सोई पुरुषारथ है सोई धन घरी है // 2 // धूलि करि मंडित न मंडित है अंवरसौं, बैठि पदमासन खड़ासन अटल है। तत्त ग्यान सार गहि मौन सांत मुद्रा धारि, अध खुले नैन दिष्टि नासिका अचल है // बाहर वैरागरूप अंतर निरंजन लौ, खाजकौं खुजावै मृग जानकै उपल है / 1 परिग्रह / 2 कपड़ा। (181) ऐसी दसा होयगी हमारी तव जानहिंगे, नरभव पाय पायौ सुक्रतको फल है // 3 // सून्यवास घर वास छिमा नारिसौं अभ्यास, दसौं दिसा अंवर संतोप महा धन है / सैल-सिला सेज सार दीप चंद्रमा निहार, तपका व्यौहार सब मैत्री परिजन है। ग्यान सुधा भोजन है अनुभौ-सरूप सुख, ऐसी सौंज परसेती कहा परोजन है। एक दसा लई महाराजकी अवस्था भई, समता कहा है महा लोभको सदन है // 4 // जगमैं चौरासी लाख जोनिको फिरनहार, नर अवतार महा पुन्य उदै पावै है। उत्तम सुकुल दिढ काय आयु पूरनता, बुद्धि सास्त्र-ग्यान भागसेती वनि आवै है। तिसपै वैराग होय तप तपै कृती सोय, सोऊ ध्यान सुधापान करै लव लावै है / कंचन महल पर मंनिमै कलस धर, आतमतें सोई परमातम कहावै है // 5 // ग्रीषम सिखर सीस पावसमें तरु तलैं, सीत काल चौपथमैं देह नेह हस्यौ है / वन परै त्रासनसौं आगके प्रकासनसौं, प्रानके विनासनसौं ध्यान नाहिं टस्यौ है // जप जोग तप धारि भेदग्यानकों संभारि, चंचलता चित्त मारिकै समाध वस्यौ है / १प्रयोजन-मतलव / 2 मणिमय-रत्नजडित / Scanned with CamScanner

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