Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 104
________________ सीमंधर परथम भविक जीव मन समोसरन वार बीसौं जिन अ (186) धारी ते अनंती जोनि नाम गह्यौ कौन कौन. तेरी नाम चेतन तू देखि आप ठामों // 9 // भाड़ा दे वसत जैसैं भौनमैं लसत ऐसे, आपकौं मुसाफिर ही सदा मान लेत है। धाय-नेह वालक ज्यों पालक कुटंब सव, ओषध ज्यौं भोगनिकौं भोगत सचेत है। नीतिसेती धन लेय प्रीतिसेती दान देय, कव घर छटै यह भावनासमेत है। औसरकौं पाय तजि जाय एक रूप होय, द्यानत वेपरवाह साहवसौं हेत है // 10 // पंडित कहावत हैं सभाकौं रिझावत हैं, जानत हैं हम बड़े यही बड़ी मार है। पूरव आचारजौंकी वानी पेख आप देख, मैं तौ कछु नाहिं यह बात एक सार है / भाषत हौं कौन ठाम ठानत हौं कौन काम, आवत है लाज दूजी वात सिरदार है। तीजी वात वैन सब पुद्गल दरवरूप, द्यानत हम चिद्रूप लखें होत पार है // 11 // इति सज्जनगुणदशक / जंबु सुदरसन मेर सीता नदी तासते देवारन वनकेस तामें श्रीदेवाशित जंबु सुदरसन मे सीतोदाकी उत्तर ( 187) वर्तमान-बीसी-दशक। कवित्त (31 मात्रा)। परथम जिन साह्न, अंत अजितवीरज परमेस / वमन-पदम विकासन, मोह तिमिरकहरन दिनेस नबारै जोजन धनु, पनसै पूरव कोड गनेस / जिन अब हैं विदेहमैं, बंदि निकंदों पाप कलेस // 1 // दरसन मेर मध्यत, पूर्वविदेह आठमा थान। नदी तासतें उत्तर, नील सिखरतें दच्छिन आन // चनके समीप है, पुंडरीकनी नगरी मान / देवाधिदेव सीमंधर स्वामि नमों धरि ध्यान // 2 // घासन मेर मध्यतै, पछिम विदेह आठमा ओर। की उत्तरकी दिसि, नील सिखरतें दच्छिन जोर // मरन वनके समीप है, नगरी विजय वचन न कठोर / सपूज जुगमंधर सूरज, भजै भ6गे पातिग चोर // 3 // सुदरसन मेर मध्यतें, पूर्व विदेह आठमा थान / मीता नदी तास” दच्छिन, निपध सैलते उत्तर जान // देवारन वनके समीप है, पुरी सुसीमा सुखकी खान / करुनासिंधु सुबाहु जिनेसुर, सेऊं मनवांछित-फल-दाना॥४॥ जंबु सुदरसन मेर मध्यतै, पच्छिम दिसि अहम सुभ खेत / सीतोदातें दच्छिनकी दिस, निषध सैलतें उत्तर चेत // भूतारन वनके समीप है, नगरी वीतसोक सुखहेत / बाहु प्रभू सिवराह बतावत, वंदत पाऊं परम निकेत // 5 // विजय मेरतें चार इही विध, अचल मेर चव इसी प्रकार। मंदर मेर चार याही विध, विद्युतमाली इह विध चार // Scanned with CamScanner

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