Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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________________ (166) चंद भान असंख्याततै अनंतगुनी जोति सोऊ नाहिं लगै ऐसे दर्सनकी रास है। निराबाध सास्वतौ अनाकुल अनंत सुख. अंस हू न लोकमाहिं इंद्री सुखभास है। सत इंद्रसेती जोर बलको नहीं है ओर, अनंतचतुष्टै नाथ वंदौं अघ नास है॥६॥ छयालीस गुणवर्णन। दसौं जनमत सार दसों घात घात कर, चौदै सुरकृत प्रातिहारज आठौं गहे / अनंतचतुष्टै कहिवतकौं छियालीस हैं, गुन हैं अनंत तेरे ग्यानी ग्यानमैं लहे // तारनकौं मान मेघ धारके प्रवांन और, संभूरमनि-लहर तातें अधिके कहे। कौन भांति भाखे जाहिं थिरता औ बुद्धि नाहिं. द्यानत सेवकने न्यारे न्यारे सरदहे // 7 // इति जिनगुनमालसप्तमी। ( 167) समाधिमरण / जोगीरासा। गौतम स्वामी बंदी नामी, मरनसमाधि भला है। मैं कब पाऊं निसदिन ध्याऊं, गाऊं वचन कला है // देवधरम गुरु प्रीति महा दिढ, सात विसन नहिं जाने / तजि वाईस अभच्छ संयमी, बारह व्रत नित ठानै // 1 // चक्की उखरी चूल बुहारी, पानी त्रस न विराधै। . बनिज करै परद्रव्य हरै नहिं, कर्म छहौं इम साधै // पूजा सास्त्र गुरूकी सेवा, संजम तप बहु दानी। पर उपगारी अल्प अहारी, सामायिकविधग्यानी // 2 // जाप जपै तिहुं जोग धरै थिर, तनकी ममता टारै। अंतसमै वैराग सँभारै, ध्यानसमाधि विचारै // .. आग लगै अरु नाव जु डूवै, धर्मविघन जब आवै / चार प्रकार अहार त्यागिकै, मंत्रसु मनमैं ध्यावै // 3 // रोग असाध्य जरा वहु दीखे, कारन और निहारै / बात बड़ी है जो वनि आवै, भार भवनको डारै // .. जो न बनै तौ घरमैं रहिकैं, सबसौं होइ निराला / मात पिता सुत तियकौं सोंपै, निज परिगह अहि काला // 4 // कुछ चैत्यालै कुछ स्रावक जन, कुछ दुखिया धन देई / छिमा छिमा सबसौं करि आछ, मनकी सल्य हनेई // सत्रुनिसौं मिलि निज कर जोरै, मैं बहु करी बुराई / तुमसे पीतमकौं दुख दीनँ, ते सब बकसौ भाई // 5 // धन धरती जो मुख” मांगै, सो सव दे संतोखै / छहौं कायके प्रानी ऊपर, करुना भाव विसेखै // Scanned with CamScanner

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