Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 82
________________ (142) सुभासुभ परतच्छ चच्छसौं विलोकत है, पाप घन जोरि धन भानकौं अवर है। धन परजन तन सवसौं निराला आप, सुच्छ लखै दच्छ कर्म नासकौं जबर है . .. ममतानिवारण। . भोगक कियेतें पापकर्मको संजोग भूरि, संजम धरेते पुन्य कर्मको निवास है। धनकै बढ़ेते मोह भावनकी वढ़वार, आसकै निरोधसेती बोधकौ प्रकास है // परगह भार गहें आरंभ अपार होय, संग-निरवार करें दयाको विलास है। द्यानत कुटुंब माहिं ममता छूटै है नाहिं, एकरूप भए सम सुखता अभ्यास है // 9 // . आशा। केई विषै भोग पाय त्यागें मन वच काय, लैक मुनिराय पाय वंदनीक भए हैं। केई विपैमैं निवास चित्तमै रहें उदास, ग्यानको प्रकास भववास पर गए हैं / किनहीकै विष नाहिं वांछा हू न उरमाहिं, चाह दाह हीन आप-लीन परनए हैं। हमें विपै योग उपयोग सुद्ध दोनों नाहिं, वृथा आस-पास परे दोषनिसौं छए हैं // 10 // देस देस धाए गढ़ बांके भूपती रिझाय, धल हू खुदाए गिरि ताए पारा ना मस्यौ / (143) सागरकों तरि धाए मंत्र ह मसान ध्याए, पर घर भोजन ससंक काक ज्यों कयौ / बड़े नाम बड़े ठाम कुल अभिराम धाम, तजिकै पराए काम करे काम ना सम्यो / तिसना निगोड़ीन न छोड़ी बात भाँड़ी कोऊ, मति हु कनौड़ी कर कौड़ी धन ना सी // 11 // हर्पशोकल्यागके छह दृष्टान्त / / आंव फल छाहिं खरबूजे फल छाहिं नाहिं, नीबमाहिं फल नाहिं छाहिं ही सहाय है। आक फूल छाहिं नाहिं कंटक थूहर माहि, कांटे हैं बंदूर राह आए दुखदाय है // पुन्य पाप उतकिष्ट मध्यम जघन्य भेद, जैसा उदै तसा धन दारा सुत पाय है। हरख सोक की कहा बीज बोय वृच्छ लहा, दावा तजि साखी होय आव बीती जाय है // 12 // वाद विवादमें मत पड़ी। साधरमी जन माहिं जो चरचा बने नाहिं, भेपधारी सिष्यनिमें कहैं जे अवन हैं। सेतपटधारी जे पुजारी लोके ढूंढ़िये हैं, वांभन वैरागी औ संन्यासी जे कटन हैं। मीमांसक आदि जात जिनसौं मिले न वात, राग दोष किये घात ग्यानकै पतन हैं। समता सरूप धरौ ऐंच बैंच में न परी, ग्रंथ नाय करौ हरौ दोप भरे जन हैं // 13 // Scanned with CamScanner

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