Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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________________ (48) धर्मपचीसी। --- - - -: शिवमारग जिन भासियो, किंचित जानै कोइ / अंत समाधिमरण करै, चहुँ गति दुख छय होइ॥४७॥ षट् द्वै गुण सम्यक गहै, जिनवानी रुचि जास। सो धनसौं धनवान है, जगमैं जीवन तास // 48 // सरधा हिरदै जो करै, पढ़े सुनै दे कान।। पाप करम सब नासिक, पावै पद निरवान // 49 // हितसौं अरथ वताइयौ, सुगुरु बिहारीदास / ' सत्रह सौ बावन वदी, तेरस कातिकमास // 50 // ग्यानवान जैनी सबै, वसैं आगरेमाहिं। अंतरग्यानी बहु मिलें, मूरख कोऊ नाहिं // 51 // छय उपशम वल, मैं कहे, द्यानत अच्छर एहु / दोष सुवोधपचासिका, वुधजन सुद्ध करेहु // 52 // Prams. इति सुबोधपंचासिका। दोहा। भव्य-कमल-रवि सिद्ध जिन, धर्मधुरंधर धीर। नमत संत जग-तम-हरन, नमौं त्रिविध गुरु वीर // 1 // चौपाई ( 15 माना।) मिथ्याविषयनिमैं रत जीव, ताक् जगमैं भमै सदीव / विविध प्रकार गहै परजाय, श्रीजिनधर्म न नेक सुहाय 2 धर्मविना चहुं गतिमैं परै, चौरासी लख फिरि फिरि धेरै / दुखदावानलमाहिं तपंत, कर्म करै फल भोग लहंत // 3 // अति दुलेभ मानुष परजाय, उत्तम कुल धन रोग न काय। इस औसरमै धर्म न करै, फिर यह औसर कबधौं वरै // 4 // नरकी देह पाय रे जीव, धर्म बिना पशु जान सदीय / अर्थकाममें धर्म प्रधान, ताबिन अर्थ न काम न मान॥५॥ प्रथम धर्म जो करै पुनीत, सुभसंगम आवै करि प्रीत / विघन हरै सब कारज सरै, धनसौं चाखौं कौंने भरै // 6 // जनम जरा मृतुके बस होय, तिहूंकाल जग डोलै सोय / श्रीजिनधर्म रसायन पान, कबहुं न रुचि उपजै अग्यान 7 ज्यों कोई मूरख नर होय, हालाहल गहि अमृत खोय / त्यौं सठ धर्म पदारथ त्याग, विषयनिसौं ठानै अनुराग // 8 // मिथ्याग्रह-गहिया जो जीव, छांडि धरम विषयनि चित दीव। यौं पसु कल्पवृक्षकों तोड़ि, वृक्ष धतूरेके बहु जोड़ि // 9 // नरदेही जानौ परधान, विसरि विपै करि धर्म सुजान / त्रिभुवन इंद्रतने सुख भोग, पूजनीक हो इंद्रन जोग॥१०॥ ध. वि. 4 1 निःशांकित, निःकांक्षित, निविचिकित्सित, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना, ये षड्दै अर्थात् आट सम्यग्दर्शनके अंग हैं। Scanned with CamScanner

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