Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 59
________________ (96) विवेक-चीसी। उनक। जनम जरा मृति अरति, राग में दोष मोह मद / चिंता विल नींद, भूख तिस सोग स्वेद गद // खेद अगरे चूरि, दूरि घातिया भगाए। गुन अनंत भगवंत, उचालिस परगट गाए // देवाधिदेव अरहंत पद, सुर-नर-पति पूजा करें। वंदी त्रिकाल तिहुँ जोगौं, विधनपुंज छिनमें हरें। ज्ञान प्रशंसा। कारतिकी रति नाहि. मान कविता न करनको। ग्यान गान गुदरान (8) जैन परवान धरनको // आपद संपद सबै, फत्रै पुग्गलके माहीं। मैं निज सुद्ध विसुद्ध, सिद्ध सम दूजो नाहीं // . इम आठ पहर जाकी दसा, गुसा खात हू ग्यानले / ( 97 ) लोभी दूजो नाहि, सुगुन धन दै न दिखावै // मैं करे चहूँ-गति गमनको, दया विसन लीनौ पकर / तब करम नाहके हुकमतें, चढ्यौ मुकति गढ़ ग्वालियरा॥४ तिय मुख देखनि अंध. मूक मिथ्यात भननकों। बधिर दोष पर सुनन, टुंज पटकाय हननकों। पंगु कुतीरथ चलन, सुन्न हिय लोभ धरनकों। आलनि विषयनिनाहिं, नाहिं बल पाप करनौं / यह अंगहीन किह कामको कर कहा जग वैठक। द्यानत तातें आठौं पहर, रहै आप घर पैठकें // 5 // होनहार तो होय, होय नहिं अन होना नर। हरप मोक क्यों कर, देख सुख दुःख उदेकर // हाथ कळू नहिं पर, भाव-संसार वहाब। मोह करमको लियौ, तहां सुख रंच न पावै // यह चाल महा मूरखतनी, रोय रोय आपद सह। ग्यानी विभाव नामन निपुन, ग्यानलप लन्ति मित्र लहाद अरचं नित अरहंत, मुगुरुपदपंकज पर। परचे तत्त्वनिमाहि; धरम कारज धन बर।। पात्र दान नित देहि, लैहि व्रत निरमल पाल / छुधित त्रिपित जन पोख, मोखमारगनल टालें।। घरमी सज्जनसों हित धरै, इन गृहस्य युति बुब / जे मोह-जालमें फँसि रहे, ते चहुंगति दुव-दीर! तत्त्व दोय परकार, मु-पर भाप्यो जिन-स्वानी। पर अरहंत सरूप, पुन्यकारन जग नानी !! आप तत्त्व दो भेद, सहित विकलप निरविश्वन / निरविकलप निरवंध,बंध विकलप ममता जर घ. वि. द्यानत सोई ग्याता महा, कहा करै जमराज भै // 2 // ग्यानकूप चिद्रूप, भूप सिवरूप अनूपम / रिद्ध सिद्ध निज वृद्ध, सहज ससमृद्ध सिद्ध सम // अमल अचल अविकल्प, अजल्प, अनल्य मुखाकर। मुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, सुगुन-गन-मनि-रतनाकर // . उतपात-नास-धुव साध सत, सत्ता दरव सु एकही। द्यानत आनंद अनुभौ दसा, बात कहनकी है नहीं॥३॥ क्रोध कर्म करे, मूलसेती इह भानौं। मान महा परचंड, त्रिजगपति हो किह मानों / / कपट-खान परधान, स्वाद अनुभो न बतावै / Scanned with CamScanner

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