Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 44
________________ (66) दरव करम नोकरमतें, भावकरमतें भिन्न / . विकलप नहीं सुवुद्धकै, सुद्ध चेतनाचिन्न // सुद्ध चेतनाचिन्न, भिन्न नहिं उदै भोगमैं। सुखदुख देहमिलाप, आप सुद्धोपयोगमै // हीरा पानीमाहिं, नाहिं पानी गुण है कव / (67) द्यानत चक्री जुगलिये, भवनपती पाताल / सुर्गइंद्र अहमिंद्र सव, अधिक अधिक सुख भाल // अधिक अधिक सुख भाल, काल तिहुं नंत गुनाकर। एकसमै सुख सिद्ध, रिद्ध परमातमपद धर // सो निहचै तू आप, पापविन क्यों न पिछानत / दरस ग्यान थिर थाप, आपमें आप सु द्यानत // 11 // इति ज्ञानदशक। आग लगै घर जलै, जलै नहिं एक नभदरव // 8 // जो जानै सो जीव है, जो मानै सो जीव / जो देखै सो जीव है, जीवै जीव सदीव // जीवै जीव सदीव, पीव अनुभौरस प्रानी। आनंदकंद सुवंद, चंद पूरन सुखदानी // जो जो दीसै दर्व, सर्व छिनभंगुर सो सो / सुख कहि सकै न कोइ, होइ जाकौं जानै जो // 9 // सब घटमैं परमातमा, सूनी और न कोइ / बलिहारी वा घट्टकी, जा घट परगट होइ // जा घट परगट होइ, धोइ मिथ्यात महामल / पंच महाव्रत धार, सार तप तपै ग्यानबल // " केवल जोत उदोत, होत सरवग्य दसा तब / देही देवल देव, सेव ठानें सुर नर सब // 10 // 1 पुदूगल पिण्डको द्रव्यकर्म कहते हैं। 2 कर्मके उदयको जो सहकारी द्रव्य वह नोकर्म द्रव्य है / 3 पुदूगलपिण्डमें आत्मगुण घातनेकी जो शक्ति सो भाव कर्म है। 4 मन्दिर। 1 भवनवासी / 2 व्यंतर। Scanned with CamScanner

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