Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 34
________________ (46) ठीक रहै धन सासतौ, मन भाई रे, होइ न रोग न काल, चेत मन भाई रे। तबहू धर्म न छाँड़ियै, मन भाई रे, कोटि कटें अघजाल, चेत मन भाई रे // 29 // डरपत जो परलोकतें, मन भाई रे, चाहत सिवसुख सार, चेत मन भाई रे / क्रोध मोह विषयनि तजौ, मन भाई रे, धर्मकधित जिन धार, चेत मन भाई रे // 30 // ढील न करि आरंभ तजौ, मन भाई रे, आरंभमें जियघात, चेत मन भाई रे। जीवघाततै अघ वढ़े, मन भाई रे, अघते नरकनिपात, चेत मन भाई रे // 31 // नरक आदि तिहु लोकमैं, मन भाई रे, इह परभव दुखरास, चेत मन भाई रे / सो सब पूरव पापतै, मन भाई रे, जीव सहै वहु त्रास, चेत मन भाई रे // 32 // दाल, वीरजिनिंदकी। तिहु जगमैं सुर आदि दै जी, जो सुख दुलभ सार / सुंदरता मनभावनी जी, सो दै धर्म अपार // रे भाई, अब तू धर्म सँभार, यह संसार असार,रे भा० 33 धिरता जस सुख धर्मा जी, पाच रतन भंडार / धर्मविना प्रानी लहै जी, दुख नाना परकार ॥रे भा० 34 / दान धर्मतें सुर लहै जी, नरक होत करि पाप / इहविध जानें क्यों पड़े जी, नरकवि तू आपारे भा०३५ (47) धर्म करत सोभा लहै जी, जय धनरथ गज वाजे। प्रासुकदान प्रभावसौं जी, घर आवें मुनिराजारे भा० 36 नवल सुभग मनमोहना जी, पूजनीक जगमाहिं / रूप मधुर वच धरमत जी, दुख कोउ व्यापै नाहिं।।रे भा०३७ परमारथ यह वात है जी, मुनिकों समता सार / विन मूल विद्यातनी जी, धर्म दया सिरदार // रे भा०३८ फिर सुन करुना धर्मसी जी, गुरु कहिये निरग्रंथ / देव अठारह दोप विन जी, यह सरधा सिवपंथारे भा०३९ बिन धन घर सोभा नहीं जी, दान विना घर जेह / जैसे विषई तापसी जी, धर्म दयाविन तेह् // रे भा०४० दोहा। भौंदू धनहित अघ कर, अघसौं धन नहिं होय / धरम करत धन पाइय, मन मान कर सोय // 41 // मति जिय सोच किंच तृ, होनहार सो होय / जे अच्छर विधिना लिखे, ताहि न मैट कोय // 42 // यह वह बात बहु करौ, पैठौ सागरमाहिं / सिखर चढ़ा वस लोभक, अधिकी पावा नाहिं // 43 // रैनि दिना चिता चिंता,-माहिं जलै मति जीव / जो दीया सो पाय है, और न होय सदीय / / 44 // लागि धरम जिन पूजिय, साँच कह सब कोय / चित प्रभुचरन लगाइये, तब मनवांछित होय // 45 // वह गुरु हो मम संजमी, देव जैन हो सार / साधरमी संगति मिली, जव ला भव अवतार // 46 // १घोड़ा। Scanned with CamScanner

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