Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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________________ INES सत्रैसी ठावन मगसिरवदी छटि वढ़ी, आगरेमें सैली सुखी निजमनधनसों। मानसिंहसाह औ विहारीदास ताको शिष्य द्यानत विनती यह कहै सब जनसौं / जिहिविधि जानौ निजआतम प्रगट होइ, वीतरागधर्म बढ़े सोई करौ तनसौं। दुखित अनादिकाल चेतन सुखित करौ, पावै सिवसुखसिंधु छूटै दुःख बनसौं // 120 // बानी तो अपार है कहांलग बखान करौं, गणधर इंद्र आदि पार नहीं पायौ है। तुच्छमती जीव ताकी कौन बात पूछत है, जे तो कछू कहै ते तौ तहां ही समायौ है। अच्छर अरथ बानी तीनौ तौ अनादि मानी, करै कहै कौन मूढ कहत मैं गायौ है। याही ममतासौं चिरकाल जगजाल रुलै, ग्यानी सब्दजाल भिन्न आपरूप पायौ है // 121 // . अथ सुबोध पंचासिका। सौरटा। ओंकार मझार, पंचपरमपद वसत हैं। तीन भवनमै सार, वंदों मनवचकायसौं // 1 // अच्छरज्ञान न मोहि, छंदभेद समझौं नहीं। बुधि थोरी किम होय, भाषा अच्छर-बावनी // 2 // आतम कठिन उपाय, पायौ नरभी क्यों तजै। राई उदधि समाय, ढूढ़ी फिर नहिं पाइए // 3 // इहविधि नरभौ कोइ, पाय विषैरससौं रमै। सो सठ अंमृत खोय, हालाहल विष आचरै // 4 // ईसुर भाख्यौ एह, नरभव मति खोवै वृथा। फिर न मिलै यह देह, पछितावौ बहु होइगौ // 5 // उत्तम नर अवतार, पायौ दुखकरि जगतमै / यह जिय सोच विचार, कछु तोसा सँग लीजिए // 6 // ऊरधगतिको बीज, धर्म न जो नर आदरै। मानुष जौनि लही जु, कूप परै नर दीप लै // 7 // रिस तजिकै सुन वैन, सार मनुप सब जोनिमें / ज्यौं मुख ऊपर नैन, भान दिपै आकासमैं // 8 // छन्द चाल। रीझ रे नर नरभौ पाया, कुल गोत विमल तू आया। जो जैनधरम नहिं धारा, सव लाभ विषै सँग हारा॥९॥ लिखि बात हिये यह लीजै, जिनकथित धर्म नित कीजै। भवदुखसागरकौं तरिए, सुखसौं नौका जो बरियै // 10 // इति उपदेशशतक / Scanned with CamScanner

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