Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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________________ (24) सुद्धदृष्टि लखि दुष्ट, सिष्टकौ हेत विहंडित / करम थान करि भिष्ट, भाव उतकिष्ट सुमंडित // सुभ परम मिष्ट समता सुधा, गट्ट गट्ट तिन गट्ट किय। करि अह नह भव कह दहि, सह सट्ट सिव सट्ट लिय॥१९॥ गहत पंच व्रत सार, रहित परपंच करन पन / समिति पंच प्रतिपाल, जपत नित इष्ट पंचे मन // धरत पंच आचार, पंच विग्यान विचारत / लहत पंच सिवहत, पंच चारित्त चितारत // अरि छट्ट छट्ट परिकट्ट करि, तट्ट तट्ट दहवट्ट किय / करि अह नह भवकह दहि, सट्ट सट्ट सिव सट्ट लिय // 7 // __ मिथ्यात्वादि सिद्धपर्यंत अवस्थाएँ, सबैया इकतीसा / मिथ्या भाव मारत हैं सम्यककौं धारत हैं, अबतकौं टारत हैं गारत हैं ममता। महाव्रत पारत हैं श्रेणीकों सँभारत हैं, . वेदभाव जारत हैं लोभ भाव ममता // घातिया निवारत हैं ज्ञानकों पसारत हैं, लोकालोककौं निहारे इंद्र आय नमता। जोगकौं विडारत हैं मोखकौं विहारत हैं, ऐसी गति धारै सुख होत अनोपमता // 71 // सर्वगुरुस्तुति वर्णन, छंद करखा / ' मोहकों भानिकै, आपकौं जानिकै, ज्ञानमैं आनिकै, होत ग्याता / (25) मारकौं मारिकै, वामकौं टारिकै, पापकौं डारिक, पुन्य पाता // क्रोधकों जारिक, मानकों गारिक, वंककौं दारिक, लोभ हाता। कर्मकों नासिकै, मोखमैं वासिकै, ताहिकों चित्तमें, भव्य ध्याता // 72 // उपदेश, सवैया इकतीसा / जगतके निवासी जगहीमै रति मानत हैं, मोखके निवासी मोखहीमैं ठहराये हैं। जगके निवासी काल पाय मोख पावत हैं, मोखके निवासी कभी जगमैं न आये हैं। एती जगवासी दुखवासी सुखरासी नाहिं, वे तो सुखरासी जिनवानीमैं बताये हैं। ताते जगवासतें उदास होइ चिदानंद, रत्नत्रयपंथ चलें तेई सुखी गाये हैं // 73 // याही जगमाहिं चिदानंद आप डोलत है, भरम भाव धेरै हरै आतमसकतकौं। अष्टकर्मरूप जे जे पुद्गलके परिनाम, तिनकौं सरूप मानि मानत सुमतकों // जाहीसमै मिथ्या मोह अंधकार नासि गयौ, भयौ परगास भान चेतनके ततकौ / तहीसमै जानौ आप आप पर पररूप, भानि भव-भावरि निवास मोख गतको // 74 / / 1 कामदेवको / 2 मायाको / 3 भ्रमण / * 1 पांच इंद्रिय / 2 पंचपरमेष्ठी। Scanned with CamScanner

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