Book Title: Descriptive Catalogue Of Manuscripts Vol 02
Author(s): Shripad Krishna Belvalkar
Publisher: Bhandarkar Oriental Research Institute
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Grammar
हैमव्याकरणार्ण[वं] निजवि ( धि ) या नावावगाह्याभितौ (तो) मंजूषा समपूरि भूरिघृणिभियै ( मैं ) न्ययरत्नैरिह | ज्योतिस्तंत्र निवर्त्तिवार्त्तिककृतः श्रीमहंसाया जीयासुः सुमनोमनोरम गिरस्ते वाचकाधीश्वराः || ५ ॥ व्याकरणांभोधि (धिं) ये विगाह्य महाधियः | अभिज्ञानमिवाकार्षुः क्रियारत्नसमुच्चयम् ॥ ६ ॥ वैयाकरणधुर्यास्ते श्रीगुणरत्नसूरयः । अन्येपि शाब्दिकप्रष्टा विजेषीरन्महर्षयः ॥ ७ ॥ युग्मम् ॥
हैमव्याकरणार्णवस्य महतस्तुछा (च्छा) मदीया मतिद्रोणी पारमविंदती (ते ) यमसकृत्क्रोडेस्य चिक्रीडयन् । यच्चाभून्मुदमुक्तिमौक्तिकशतैर्व्यक्तीकृतैः कोविदां तत्सर्वं सुगुरुप्रसाद पवनप्रागल्भ्यमुज्जृंभते ॥ ८ ॥ श्रीसूरिभिर्यानि निरूपितानि सूत्राणि तान्येव शतत्रिकानि । क्रमः परावर्तित एव शब्दव्युत्पत्तये माहशबालिशानां ।। ९ ।। या श्रीगुरोमु ( र्मु ) खावु ( दु ) दभवशा (त्सा ) मे क वाक्चातुरीत्यालो चौघ" (?) चोभिरमलैस्तैरेव शब्दक्रमः ।
सर्व प्राक्तनमेव नव्यमिह किं निर्दिष्टमित्यादिभिर्वाग्भिर्मामिह ये इति सुहृदस्तुष्यंतु ते सज्जनाः ॥ १० ॥ हो कोविदकुंजराः किमु गिरामर्थेषु संशय्यते वीक्ष्यध्वे किमु साधुशब्दघटनां पृछाविलक्षा वियत् । सूत्राणां विविधप्रयोगसजुषामन्वेषणे कः श्रमो जागयैष विशेषबोधकुशलो हैमप्रकाशो गुरुः ॥ ११ ॥ संतः प्रसीदंतु सदोल्लसन्तो गुणान्परेषां कृतिनो विभाव्य । क्रि(क्रीडा शिसो ( शो ) रित्यपि कौतुकान्मे
प्रयत्नमेनं स्वदृशा पुनंतु ॥ १२ ॥
चित्रं रागद्वेषौ दोषावुपकारिणाविह कृतौ मे । यदि मां संतो रागाद् द्वेषादपरे विलोकयिष्यंति ॥ १३ ॥
क्षुण (णं) यदत्र लिखितं मया प्रमादादिचटुलचित्तेन । यछो (? तच्छो )धन्तु ( धयंतु) सुधियामयं प्रणामांजलिर्घटितः ॥ १४ ॥
श्री विजयप्रभगणपतिपट्टाधिप विजयरत्नसूरीणां ।
निर्देशादिह हर्षाद्वर्षा स्थितवतो मे ॥ १५ ॥
ऋषिवह्निजलधिशशिमितवर्षे (१४ (१७) ३७) रतलामपुरे रम्ये । ग्रंथोऽयं संपूर्णो विजयदशम्यामिति श्रेयः ॥ १६ ॥ श्रीरस्तु | शिवमस्तु ।
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