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पंडित सुखलालजी
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(२) ऐतिहासिक दृष्टि यानी सत्यशोधक दृष्टि-किसी भी तथ्यका उपयोग अपने मान्य मतको सत्य सिद्ध करनेके हेतु नहीं, पर उस मतके सत्यस्वरूपका साक्षात्कार करनेके लिये ही होना चाहिये ।
(३) तुलनात्मक दृष्टि—किसी भी ग्रन्थके निर्माणमें कई प्रेरक बलोंने कार्य किया होता है । इसीके साथ उस ग्रन्थ पर पूर्वकालीन या समकालीन ग्रन्थोंका प्रभाव होता है तथा उसमें अनेक अन्य उद्धरणोंके समाविष्ट होनेकी संभावना रहती है। इसके अतिरिक्त समान विषयके ग्रन्थों में, भाषा-भेदके होते हुए भी, विषय-निरूपणकी कुछ समानता अवश्य रहती है। इसलिये जिस व्यक्तिको सत्यकी खोज करनी है, उसे तुलनात्मक अध्ययनको अपनाना चाहिये।
.. पंडितजीने उपर्युक्त पद्धतिसे ग्रन्थ-रचना कर कई सांप्रदायिक रूढ़ियों और मान्यताओंको छिन्न-भिन्न कर दिया । कई नई स्थापनाएँ और मान्यताएँ प्रस्तुत की। इसलिये वे एक ओर समर्थ विद्वानोंके प्रीतिपात्र बने, तो दूसरी
ओर पुराने रूढ़िवादियोंके कोपभाजन भी बने । . पंडितजी संस्कृत, प्राकृत, पाली, गुजराती, हिन्दी, मराठी, अंग्रेज़ी आदि अनेक भाषाओंके ज्ञाता हैं। गुजराती, हिन्दी और संस्कृतमें उन्होंने ग्रन्थरचना की है। प्रारंभमें पंडितजी प्रस्तावना, टिप्पणियाँ आदि संस्कृतमें लिखवाते थे, किन्तु बादमें गुजराती और हिंदी जैसी लोकसुगम भाषाओंमें लिखनेका आग्रह रखा । जब किसी विषय पर लिखना होता है, तब पंडितजी तत्संबंधी कई ग्रन्थ पढ़वाते हैं, सुनते सुनते कई महत्त्वके उद्धरण नोट करवाते हैं और कुछ को याद भी रख लेते हैं। उसके बाद एकाग्र होकर स्वस्थतापूर्वक धाराप्रवाही रूपसे ग्रन्थ लिखवाते हैं। उनकी स्मरणशक्ति, कुशाग्र बुद्धि और विभिन्न विषयों को वैज्ञानिक ढंगसे प्रस्तुत करनेकी असाधारण क्षमता देखकर आश्चर्य होता है ।
___पंडितजीका मुख्य विषय है : भारतीय दर्शनशास्त्र, और उसमें भी वे जैन-दर्शनके विशेषज्ञ हैं । उन्होंने सभी दर्शनोंके मूल तत्त्वोंका एक सच्चे अभ्यासीके रूपमें अभ्यास किया है। इसीलिए वे उनकी तात्त्विक मान्यताओंको जड़-मूलसे पकड़ सकते हैं। आज जबकि हमारे सामान्य पंडितोंको भारतीय दर्शनोंमें परस्पर विभेद नजर आता है, पंडितजीको उनमें समन्वय-साधक अभेद-तत्त्व दृष्टिगोचर होता है । इस प्रकार सर्व भारतीय दर्शनोंके मध्य समन्वयवादी दृष्टिकोणकी स्थापना ही दर्शनके क्षेत्रमें पंडितजीकी मौलिक देन है । आज तो वे भारतीय दर्शन ही नहीं, संसारके सभी दर्शनोंमें समन्वय
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