Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 13
________________ 2/श्री दान-प्रदीप का भूषण दान है। इसी कारण से जैसे काव्य से कवि, बुद्धि से मंत्री, न्याय से राजा, शूरवीरता से सुभट, लज्जा से कुलपुत्र, सतीत्व से घर, शील से तप, कान्ति से सूर्य, ज्ञान से अध्यात्मी, वेग से अश्व एवं आँख से मुख शोभित होता है, वैसे ही दान से लक्ष्मी शोभित होती है। अतः अनेक प्रयासों से प्राप्त और प्राणों से भी ज्यादा महत्त्व रखनेवाली लक्ष्मी की एकमात्र उत्तम गति दान ही है। इसके अलावा तो लक्ष्मी उपाधि रूप ही है। यह दान पात्रभेद की अपेक्षा अलग-अलग होने से अलग-अलग फल प्रदान करनेवाला होता है। जैसे-सुपात्र को दिया गया दान धर्म का कारण रूप होता है, अन्य को दिया गया दान दया का बोधक होता है, मित्र को दिया गया दान प्रीतिवर्द्धक होता है, शत्रु को दिया गया दान वैर-भाव का नाशक होता है, दास-वर्ग को दिया गया दान भक्तिवर्द्धक होता है, राजा को दिया गया दान सन्मान-प्रदाता होता है और बन्दियों (भाटादि) को दिया गया दान यशवर्द्धक होता है। सभी प्रकार की दैविक व मानुषी समृद्धि एवं मोक्ष सम्पदा का उत्कृष्ट कारण धर्म ही है और उसके भी दान, शील, तप व भाव रूपी चार प्रकार होने पर भी दान धर्म को मुख्य कहने का कारण यह है कि बाकी तीन धर्म दान धर्म से ही स्थिरता को प्राप्त होते हैं। इस दान दीपक ग्रंथ में जिनेश्वर भगवान द्वारा कथित ज्ञानदान, अभयदान और उपष्टम्भदान-इन तीन भेदों का विवेचन करके इन पर अनेक महान पुरुषों की कथाएँ दी गयी हैं। इन चरित्रों में आनेवाले उदार, पुण्य-प्रभावक दानवीरों के जीवन का स्मरण करवाकर पाठकों के हृदय में उन्नत भावों को जागृत करने के साथ उन्हें दानवीर बनने की प्रेरणा भी इस ग्रंथ में दी गयी है। ऐसे चरित्रों को पढ़ने से मन में आह्लाद उत्पन्न होता है। वह आहलाद अपूर्व व अपरिमित होने से उसमें संचित उत्तम बोध अन्तःकरण में निर्मलता के साथ अव्याबाध आनन्द को प्रवाहित करता है। जिनागम रूपी अग्नि में से विविध अर्थों के तेज को ग्रहण करके जिनशासन रूपी घर में दान रूपी दीप को प्रकट करने के लिए (श्रीजगच्चन्द्रसूरिजी के उत्तरोत्तर पाट पर श्रीसोमसुन्दरजी गुरु हुए। उनके पाँच शिष्य श्रीमुनिसुन्दर सूरिजी, श्रीजयचन्द्र मुनि, श्रीभुवनसुन्दरसूरिजी, श्रीजिनसुन्दरसूरिजी और श्रीजिनकीर्ति मुनि हुए। इनमें से श्री जिनसुन्दरसूरिजी के शिष्य) श्रीचारित्ररत्न गणिजी ने इस ग्रंथ की रचना की है। मारवाड़ में श्रीचित्रकूट (वर्तमान में चित्तौड़गढ़) में यह ग्रंथ संवत् 1499 वें वर्ष में लिखकर पूर्ण किया गया है। इसके मूल श्लोक 6675 हैं। इस ग्रंथ के पिछले भाग में दी गयी प्रशस्ति में ग्रंथकर्ता महाराज ने ऐसा बताया है। यह मूल ग्रंथ भी इसी सभा द्वारा प्रकाशित हुआ है। यह मनुष्यों के लिए उपकारक होने से प्रवर्तक श्रीकांतिविजयजी महाराज के शिष्यरत्न मुनिराजश्री चतुरविजयजी महाराज ने भाषान्तर करवाकर प्रकट करने की आज्ञा प्रदान की थी। इस ग्रंथ में ग्रंथकार महाराज ने बारह प्रकाश (विभाग) में उपरोक्त तीनों दान और उन पर अनेक कथाओं का समावेश किया है। किस-किस प्रकाश में किस-किस दान के प्रकार और उस पर दानवीर नरों के चरित्रों का अधिकार किन पन्नों से कहां तक है-यह सब भी संक्षेप में आगे बताया है। इससे सम्पूर्ण ग्रंथ का रहस्य सरलता से समझा जा सकेगा। इसके अलावा विशेष रूप से प्रत्येक प्रकाश और कथाओं की अनुक्रमणिका भी इस प्रस्तावना के बाद के भाग में दी गयी होने से किसी भी दान के विषय और उस पर दी जानेवाली कथा को यथासम्भव स्वाभाविक रूप में सरलता से पढ़ा जा सकेगा।

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