Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ प्रभु इसलिए कहता हूं कि सुनकर ही आपको याद आ जाए कि मेरे भीतर भी वह है। सोहं – मैं वह हूं। शिवोऽहं - मैं शिव हूँ। ___मैंने अपने भीतर उसे देखा है, अस्तित्व का वह परम आनंद चखा है, धुंघरू भीतर थिरके हैं। इसलिए जब आपको देखता हूं तो आपका रूप-रंग, शारीरिक बनावट या वस्त्राभूषण नहीं देखता। मुझे तो यही दिखाई दे रहा है कि मेरे भीतर जो तत्व, जो आन्तरिक शून्य, जो आन्तरिक आनन्द घटित हो रहा है, वही आपके भीतर भी है। जैसे-जैसे मनुष्य के अज्ञान की पर्ते हटती चली जाती हैं, आन्तरिक शून्य घटित होता रहता है, व्यक्ति भीतर के आनन्द से उल्लसित, उत्सवित होता रहता है। ऐसा मत समझिए कि मैं आपको कोई सिद्धांत देना चाहता हूं। मैं तो इस बात का खोजी हूं कि अपने जीवन में शांति और आनन्द कैसे घटित किया जा सकता है। अपनी आत्मा के आनन्द को, अपने सहजानन्द को कैसे घटित किया जा सकता है। आनन्द हमेशा सत्य होता है। इसलिए जो व्यक्ति आनन्द का खोजी है अपने आप सत्य उसका सहचर हो जाता है। वह सत्यम् शिवम् सुन्दरम् से आन्दोलित हो जाता है। मैं तो सिर्फ माली हूं। आपकी महानता है कि आप मुझे बहुत कुछ मानते हैं। मैं तो वह माली हूं जो जानता है कि बागान कैसे लगाए जाते हैं, बीज में से कैसे बरगद निकाले जा सकते हैं, कैसे फूलों को खिलाया जा सकता है। मन का मुनि, मानवता का माली। आप मुझे मुनि/महात्मा कहें, सद्गुरु या प्रभुश्री कहें जो जी भाए, कहें, सब आपकी इच्छा। मैं तो बस .....! स्वयं की अनुभूतियों ने मुझे सिखाया है कि कैसे फूल खिल जाता है, कैसे भीतर की ज्योति जाग्रत हो जाती है, कैसे चेतना का विकास और ऊर्धारोहण हो जाता है और किस तरीके से आदमी मधुर मुस्काते, हंसते-खिलते, सबके साथ मिलते हुए भी कितना अधिक स्वयं के प्रति अप्रमत्त, जाग्रत और जागरूक रह सकता है। अपने चित्त के प्रति, अपने आपके प्रति कैसे तन्मय, शांत और सावचेत रह सकता है। कुछ बीज जो यहाँ आए हैं, समर्पित हुए हैं यह आपका सौभाग्य है। जब बीज टूटने को तैयार है तो अनिवार्यतः उसमें से अंकुरण होगा। जब तक बीज स्वयं को बीज बनाए रखना चाहेगा वह राम, महावीर और बुद्ध की महानताओं को, उनके बरगद को, उनके पुष्पों को, उनकी सुरभि को, स्वाद को, रस को, गंध को, पौष्टिकता को कभी भी नहीं छू सकेगा। बीज मिटे तो ही वृक्ष हो चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 114