Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ गौण है। कौन दिखाता है इसका स्मरण रखो तो बलिहारी और न रखो तो इसका ज्यादा मूल्य नहीं। अपना काम तो शिष्य बनाकर उसे खुद का दीपक थमा देना है। ‘अप्प दीवो भव'। अगर मेरे ही सहारे चलना है तो कभी भी चलना नहीं सीख पाओगे। बच्चा यह सोचता रहे कि मुझे मां की अंगुली पकड़नी है और मां न होगी तो मैं नहीं चलूंगा। मां का मूल्य है लेकिन तब तक जब तक चलना नहीं सीखे। पांव में शक्ति आ गई फिर बच्चे को स्वयं चलना चाहिए। गुरु का कार्य ऐसा है जैसे कोई व्यक्ति तालाब में उतरना चाहता है तो....! तो के प्रश्न-चिन्ह को किनारे खिसका देता है और कहता है चिन्ता मत कर मैं तेरे साथ हूँ। मैंने तुझे पीछे पकड़ लिया अब तू पानी में उतर । वह पानी में उतरता है, फिर डरता है। जैसे नवजात पक्षी का बच्चा अपने घोंसले से दो कदम आगे बढ़ाता है, फड़फड़ाता है घबराता है और फिर वापस अपने नीड़ में लौट आता है। वह घबराहट, वह भय मिटाना ही मेरा काम है। इसलिए मैं कहता हूं पानी में नीचे उतरो मैंने पीछे से पकड़ रखा है। लेकिन मैंने पकड़ा नहीं था। सिर्फ यह विश्वास दिलाया था, आश्वासन दिया था कि पीछे से पकड़ रखा है। पकड़ा जरूर था लेकिन यह मत मान लेना कि मैंने पकड़ा था। मुझे तो सिर्फ स्वयं को पकड़ कर चलना था। इस चलने में अगर अन्य लोग भी साथ में अंगुलियां पकड़कर चलते हों तो मुझे कोई एतराज नहीं। मुझे तो अपने दीप को ज्योतिर्मय करना है और अपना दीप ज्योतिर्मय करते समय मेरे संस्पर्श से कुछ और दीप ज्योतिर्मय हो जाते हैं तो यह ज्योतिर्मय संघ का निर्माण हुआ। गुरु तो सिर्फ नीचे हाथ रखता है और कहता है हाथ-पैर चलाओ, अब तैरना सीखो। वह हाथ-पैर चलाता है, तैरना सीख जाता है और अचानक गुरु अपना हाथ हटा लेता है। आदमी तैरता रहता है इस विश्वास के साथ कि मेरे नीचे गुरु के हाथ हैं। गुरु ने तो तैरना सिखाया और हाथ हटा दिया। संसार में दो प्रकार के गुरु होते हैं। एक वे जो अपने चेलों की जमात बढ़ाना चाहते हैं। जैसे चिलम-चकड़ी की जमात बढ़ती है ऐसे चेलों की जमात बढ़ जाती है। वे सिर्फ शिष्यों की भीड़ बढ़ाते हैं। खुद तो कहीं नहीं पहुंचे होते लेकिन दूसरों को पहुँचाना चाहते हैं। जो खुद नहीं पहुंचे होते वे दूसरों को भी कभी नहीं पहुंचा सकते। खुद तो गड्ढे में गिरेंगे चेतना का ऊर्ध्वारोहण/४८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114