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किनारे लग गई, वे दोनों उतर गए और आगे बढ़ गए। पर उस व्यक्ति के मस्तिष्क में उथल-पुथल मची हुई थी । वह और अधिक धैर्य न रख सका और पूछ ही बैठा कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया ? एक तो नाविक ने पार लगाया और आपने उल्टे उसी की नाव में छेद कर दिया ? उपकार का बदला अपकार से दिया ? संत ने कहा तुमने प्रश्न पूछकर शर्त भंग की है। अब तुम तुरंत चले जाओ । मेरे साथ एक मिनिट भी नहीं रह सकते । व्यक्ति को अपनी भूल का भान हुआ, उसने क्षमा मांगी और भविष्य में ऐसा न करने का वचन दिया । क्षमाशील संत ने साथ रहने की अनुमति दे दी ।
चलते-चलते वे नगर में पहुंचे। वहाँ के राजा ने जब संत के आगमन का समाचार सुना तो प्रसन्न हृदय से उसका स्वागत किया। कई दिनों तक धर्मसभाएं, प्रवचन इत्यादि हुए। राजा बहुत प्रभावित हुआ। जब संत ने जाने की इच्छा प्रकट की तो राजा ने राजकुमार को विदा करने के लिए भेजा। राजकुमार संत को जंगल तक पहुंचाने गया । जंगल में पहुंचाकर जब कुमार वापस आने लगा तो संत ने एकाएक उसका हाथ मरोड़ा और हाथ तोड़ डाला और व्यक्ति से कहा अब तेजी से भाग चलो ।
वह व्यक्ति बहुत क्रोधित हुआ। उसने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया | उसने कहा तुम खतरनाक आदमी लगते हो। पहले तुम्हें मेरे प्रश्नों का उत्तर देना ही होगा - तुमने नाव में छेद क्यों किया ? और इस सुन्दर से राजकुमार का हाथ क्यों तोड़ा? तुम कितने निर्दयी हो ? इतने दिन राजा के यहाँ सम्मान और सत्कार पाते रहे और बदले में उसे क्या दिया ? राजकुमार का हाथ तोड़कर दुःख और पीड़ा? मेरा तुम्हारे साथ तभी निर्वाह होगा जब तुम मेरे प्रश्नों के उत्तर दोगे ।
संत ने कहा मैं उत्तर भी दूंगा और तुम जाने के लिए भी तैयार हो जाओ । पहले नाव की बात सुनो। मांझी वहाँ से रवाना होकर गांव चला जाएगा । कुछ देर में उस गांव में डाकू आने वाले थे। मैंने नौका में छेद इसलिए किया था कि डाकू नाव का उपयोग कर भाग न सकेंगे और पकड़े जाएंगे। जाकर पता लगा लेना और राजकुमार, यह भविष्य में आतताई वनेगा। राजा होकर नर-संहार करेगा, क्रूरतम अत्याचार करेगा । मैंने हाथ इसलिए तोड़ा कि इस देश का नियम है कि राजा वही बन सकता है जिसका अंग खंडित न हो ।
हमें सिर्फ प्रकट ही दिखाई देता है, अप्रकट नहीं । हमारी दृष्टि केवल व्यक्त पर ही टिकी हुई है, अव्यक्त पर नहीं । अव्यक्त और भविष्य को देखने के लिए गहरी अन्तरदृष्टि चाहिए । जब तक अभिव्यक्ति को महत्व दोगे, अनुभूति तक
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चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / ७३
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