________________
पहुंच जाएंगे। अहोभाव जगा यानी तुम उल्लसित हुए, तुम उत्सवित हुए, भीतर में डुबकी लगाकर बाहर आए । भावकेन्द्र की अत्यन्त निर्मल, शान्त
और वीतद्वेष स्थिति है यह। अहोभाव में जीना - यह मेरा पहला संदेश है और यही आखिरी भी।
ध्यान का मूल उद्देश्य है समता भावी हो जाना। लेकिन जहाँ क्रोध करना जरूरी हो जाए तब ये सांसारिकता जैसे को तैसा करना सिखाती है। यह विरोधाभास एकाग्रता में बाधा डालता है? - रश्मि मालू ध्यान का मूल उद्देश्य समताभावी हो जाना है, परन्तु जहाँ क्रोध करना जरूरी हो जाए तव . . . . . मुझे नहीं लगता क्रोध जरूरी है। मनुष्य के जीवन में कुछ गुण प्रकृतिगत होते हैं और कुछ गुण उपार्जित किए जाते हैं। क्रोध उपार्जित गुण नहीं है, यह अपने आप आ जाता है। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार हमारा चित्त बदलता रहता है। तव वह कभी क्रोध, कभी वासना, कभी अहंकार, कभी वैमनस्य के रूप में बदल जाता है। क्रोध-वासना प्रकृतिगत गुण हैं। यदि कोई पच्चीस वर्ष का है
और कहे कि मेरे मन में तो वासना उठती ही नहीं है तो वह सफेद झूठ बोल रहा है, वुद्ध वना रहा है या उसके शरीर की प्रकृति में कुछ कमी है, खामी है। तुम बुरे वातावरण को देखोगे अनिवार्यतः क्रोध उठेगा। यह प्रकृतिगत गुण है। सांसारिकता की परिभाषा हमेशा प्रकृति होती है। हम जितने प्रकृतिगत चलते हैं उतने ही सांसारिक और प्रकृति से जितने ऊपर उठकर जीते हैं, आध्यात्मिक होते चले जाते हैं। उतने ही हम कुछ अन्य गुण उपार्जित कर लेते हैं आध्यात्मिकता के। अगर कामोत्तेजना उठी, कोई गलत नहीं है, यह शरीर की प्रकृति है। यह शरीर के हारभोन्स का सक्रिय होना है। किसी के दिमाग में बुरे विचार आए मुझे नहीं लगता इसमें कोई दोष है । शरीर का निर्माण स्त्री और पुरुष दोनों के हारमोन्स से होता है। इसलिए जब भी पुरुष स्त्री को देखेगा और स्त्री पुरुष को देखेगी वे प्रभावित होंगे, यह प्रकृतिगत है। आध्यात्मिकता यह है कि व्यक्ति ने प्रकृति पर अपना नियंत्रण पा लिया। प्रकृति का उस पर स्वामित्व न रहा, वर्चस्व न रहा । वह प्रकृति का प्रभु हुआ। वह जैसा चाहे अपनी प्रकृति को चला सकता है। अगर वह नियंत्रण करना चाहे या वहना चाहे, तत्काल कर सकता
चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/६५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org