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परस्पर विरोधी ताकते हैं। संकल्प आदमी करता है, जबकि संवेग भौतिक ऊर्जा से उत्पन्न होता है। शरीर और मन में भौतिक और चेतनागत ऊर्जा समायी है । मन, प्राण, शरीर और चेतना सब एक-दूजे में घुले-मिले हैं। जब संवेग उठेगा, तो संकल्प धराशायी हो जाएंगे। पर हाँ, अगर हम संकल्प के साथ अपनी इच्छाशक्ति को संगठित कर लें और अपने संवेगों के प्रति पूर्ण सावचेत रहें, तो चेतना की नौका भीतर के ज्वार-भाटे में थपेड़े नहीं खा पाएगी। इसे समझें।
संवेग यानी संक्लेश। मनुष्य के भीतर दो प्रकार की संभावनाएं रहती हैं जिन्हें हम संक्लेश और असंक्लेश कहेंगे। जब संक्लेश की प्रवृत्ति उभरती है तो मनुष्य क्रोध, वैमनस्य, घृणा करता है, एक दूसरे से लड़ता-झगड़ता है। संक्लेश भरे अध्यवसायों से हम बुरा सोचते हैं, बुरा जानते हैं, बुरा जानने के प्रति उत्सुक होते हैं, बुरा कर डालते हैं। तब हमारे भीतर संक्लेश नहीं होता, असंक्लेश होता है तब हम अच्छा सोचते हैं, अच्छा जानने के प्रति उत्सुक होते हैं, अच्छा करने के लिए तत्पर होते हैं। कोई हमसे कितना भी बुरा करवाना चाहे फिर भी अच्छा करते हैं। यह असंक्लेश की संक्लेश पर विजय है, शांति की शक्ति पर विजय
है।
आत्मा के इर्द-गिर्द कषाय का एक तंत्र रहता है, कषाय का वलय रहता है, उसके ऊपर अध्यवसाय उठते हैं, वहीं से संक्लेश के झरने-नाले बहते हैं। वे दिन-रात बहते रहते हैं जागे हुए भी और सोते हुए भी। जब व्यक्ति मूर्छा में होगा तो संक्लेश के सागर से तरंगें उठेंगी और जब व्यक्ति असंक्लेश में होगा अर्थात् जाग्रत/चैतन्य होगा तब मनःस्थिति शान्त और शून्य होगी। वह तब अच्छा सोचेगा, अच्छा जानने के प्रति उत्सुक होगा, अच्छा करेगा अपने-आप। आप अगर सोचें कि अच्छा करूं, नहीं कर पाएंगे। आप चाहें कि बुरा न सोचूं, नहीं हो पाएगा। बुरे विचार फिर भी आएंगे। भीतर के सागर में जैसी तरंगें उभरेंगी, व्यक्ति वैसा ही करता चला जाएगा। मन बुरा सोच रहा है, वचन भी बुरे निकलेंगे, शरीर में भी बुराई पनपेगी। मन में क्रोध की तरंग उठी, विचारों में क्रोध का उभार आया और शरीर में क्रोध प्रकट हो गया यानी यह आदमी ने बुरा कर दिया ।
संक्लेश से बचने और असंक्लेश को पनपाने के लिए जागृति चाहिए । जागरूकता, अवेयरनेस चाहिए, हर समय ध्यान, योग की स्थिति आनी चाहिए। हम जितना अधिक ध्यान से जिएंगे, ध्यान से बोलेंगे, ध्यान से करेंगे, तब संक्लेश पनपेगा भी मगर असंक्लेश का वजन, ध्यान की गहराई इतनी अधिक होगी कि संक्लेश हावी नहीं हो पाएगा। ऐसा नहीं कि संक्लेश नहीं उठेगा, क्रोध की तरंग
चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/७७
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