Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 87
________________ आपके शास्त्र, आपकी किताबें कहती हैं नंगे पांव चलना चाहिए, लेकिन मेरा अभिमत है कि रबर की चप्पल पहनी जानी चाहिए क्योंकि आज के जमाने में औद्योगिकों ने ऐसी चप्पलों का निर्माण कर दिया है जो आपके पांव से भी ज्यादा नरम होती हैं। उनसे आपके पांवों की अपेक्षा कम हिंसा होगी लेकिन आप चमड़े के जूते-चप्पल पहनते हैं यह हिंसा है। रबर की चप्पल पहनना आपकी आवश्यकता है लेकिन चमड़े के बेहतरीन जूते-चप्पल पहनना आपकी तृष्णा है। भोजन आपकी आवश्यकता है, लेकिन विभिन्न प्रकार के सुस्वादु भोजन करना आप की तृष्णा है। भोजन जरूरी है लेकिन सात्विक, जो मिल जाए। नमक कम है, खटाई नहीं है यह बिना सोचे भोजन करना ठीक है। आपकी जरूरत सिर्फ भोजन है, स्वाद के लिए नमक, शकर, खटाई डालना तृष्णा है। हां अगर आपको गर्मी चढ़ रही है तो नींबू का पानी आपकी आवश्यकता है। कपड़ा पहनना आपकी जरूरत है लेकिन यह रंग, वह स्टाइल यह आपकी तृष्णा है। जहाँ तक ध्यान की बात है 'ओम्' को अगर मानो तो जरूरी है, न मानो तो कोई जरूरी नहीं है। ध्यान में प्रवेश करने के लिए कोई न कोई प्रवेश-द्वार तो बनाना ही पड़ेगा न्? किसी रास्ते पर चलना है तो प्रवेश-द्वार बनाना होगा। मकान में अन्दर जाना है तो भी प्रवेश-द्वार चाहिए । दुनिया में 'ओम्' से बढ़कर अन्य कोई महाप्रवेश-द्वार नहीं हो सकता। दुनिया में जितने भी मंत्र हैं सभी ‘ओम्' से निष्पन्न हुए हैं। हिन्दुओं के तो सारे शास्त्र कहते हैं कि धरती पर सबसे पहले 'ओम्' पैदा हुआ। ‘ओम्' कोई शब्द नहीं, सिर्फ ध्वनि है, पराध्वनि। यह तो कंठ का संगीत है। आप इसका उच्चारण करते हैं तब यह शब्द भले ही होता हो लेकिन मेरा प्रयास शब्द से निःशब्द में ले जाने का है। उसे गहराते-गहराते. 'ओम्' की सहयात्रा कराते हुए ‘ओम्' का अन्तरमंथन कराते हए, 'ओम' से मुक्त कर देना है। एक द्वार से दूसरे द्वार तक ले जाते हुए ‘ओम्' शब्द से छूट जाना है। पहला द्वार शरीर है, दूसरा द्वार विचार है और तीसरा द्वार मन है। जब हम 'ओम्' का उच्चारण करते हैं, अनगंज करते हैं तो शरीर को द्वार बनाते हैं। 'ओम' के माध्यम से भीतर प्रवेश करते हैं। जब हम सहयात्रा करते हैं तो विचारों को नियंत्रित करते हैं यह दूसरा द्वार है। अन्तरमंथन में मन नहीं बच पाता। श्वास और 'ओम्' का इतना सघन मंथन करते हैं कि शरीर, विचार, मन सब चलें, सागर के पार/८२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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