Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 88
________________ कुछ छूट जाए। तब आप देखते हैं कि अब तो मन से ‘ओम्’ भी नहीं आता। वहाँ एक शून्य घटित हुआ, हृदय का मौन घटित हुआ । अमृत निपजा, अहोभाव पैदा हुआ, आनन्द घटित हुआ । 'ओम्' आवश्यक है। जागरण के लिए, ऊर्जा - कुंड के जागरण के लिए ॐ और श्वास अचूक उपाय है। लेकिन अगर आप बिना 'ओम्' के भी ध्यान में प्रविष्ट हो जाते हैं तो आप एक सीढ़ी और आगे बढ़ चुके हैं, आपका स्वागत है । मेरे प्यारे प्रभु! जब कोई मजबूरी में या रोजीरोटी की समस्या आने पर जैन धर्म में साधु-साध्वी बनता है, दूसरे प्रकार का व्यक्ति वैराग्य आने पर दीक्षा ग्रहण करता है, दोनों प्रकार के साधु-साध्वियों के ज्ञान व दिनचर्या में फर्क होता है। क्यों? - दिलीप शाह पहली बात तो मैं यह निवेदन करना चाहूंगा कि दीक्षा मैंने भी ली, कोई पन्द्रह साल पहले। लेकिन जब मुझे ज्ञान हुआ, आत्म-सम्बोधि उपलब्ध हुई, तब मुझे लगा पहले मैंने दीक्षा ली थी और अब मेरे भीतर दीक्षा घटित हुई है। जिनसे मैंने दीक्षा ली वे एक अलग किस्म के गुरु और जिस समय मेरे भीतर दीक्षा घटित हुई तब मैं ही अपना गुरु था। मेरे भीतर किसी ने दीक्षा घटित की नहीं, अपने-आप घटित हुई । इसे पुरुषार्थ समझिये, पौरुष समझिए या साधना समझिए । मेरे देखे दीक्षा कभी दी नहीं जाती, दीक्षा घटित होती है। अगर मैं भी दीक्षा देने का व्यामोह कर लूं तो सैकड़ों शिष्य बना लूंगा पर नहीं, मैं ऐसा नहीं करूंगा । ऐसा करने से मात्र चेलों की जमात बढ़ जाएगी, मगर कोई कहीं पहुँचेगा नहीं । दीक्षा रूपान्तरण है, जीवन परिवर्तन है । यह कोई वेश-परिवर्तन नहीं है । जीवन रूपान्तरण ही दीक्षा है । इसलिए मैं कहता हूँ दीक्षा सदा घटित होती है। जब-जब भी आपको लगे कि आन्तरिक शून्य घटित हो गया, ऊर्जा का उर्ध्वारोहण हुआ या प्रकाश की लौ प्रकट हुई, शरीर में आग पैदा हुई चाहे जिस प्रक्रिया से, चाहे जिस की मौजूदगी से आन्तरिक आनन्द घटित हुआ, वही हमारा गुरु, उसी के द्वारा दीक्षा सम्पन्न हुई । मजबूरी या अभाव में दीक्षा लेने वाले और वैराग्यवासी होकर दीक्षा लेने वाले में तो निश्चित रूप से फर्क होगा ही । भूख के मारे जो साधु बनेगा वह साधु-जीवन में केवल भोजन को ही देखेगा। भोजन उसकी आकांक्षा Jain Education International चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / ८३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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