Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 80
________________ भीतर जो मन है, उस मन को हम प्रभु समझें ? नहीं, मन भी ऐसा नहीं है जिसे प्रभु कह सकें। शरीर तो पशुओं के है पर उनमें मन नहीं है, और हमारा शरीर भले ही पशुओं जैसा न हो, पर मन तो पशुवत् ही व्यवहार करता है । निश्चित ही मन तो पशुओं जैसा है । अपने मन का अवलोकन करने पर तुम पाओगे कि जैसे बैल किसी को देखकर सींग मारने दौड़ता है, कुत्ता रात्रि में भौंकने लगता है, बिल्ली दूध पर झपट पड़ती है, सांप दूसरे पर अपना जहर उगलने को तैयार रहता है, उसी तरह तुम्हारा मन भी व्यवहार करता है । तुम्हारे मन में न जाने कितनी घृणा, कितना वैमनस्य, कितना क्रोध भरा हुआ है । मन और मस्तिष्क के बीच कहीं कोई संतुलन ही नहीं है। मस्तिष्क में तो सूचनाएं और ज्ञान भर रहे हो और मन में पशुता जारी है। ज्ञान और पशुता का कहीं कोई सेतु है ही नहीं । दूसरों पर, नौकरों पर चीखने चिल्लाने की आदत यानी कुत्ता मन में बैठा है । चिड़चिड़ाने की आदत, दांत किटकिटाने की, खिसियाने की आदत, यानी बन्दर भीतर बैठा है । दूसरों का सिर फोड़ने की प्रवृत्ति, यानी सांड । अमृत को भी जहर बनाने की प्रवृत्ति यानी सांप | धन-लोभ-लालच में धंसा रहना यानी कीड़ा, कीचड़ का कीड़ा । ऐसा है मन ! मन लोभी, मन लालची, , मन चंचल, मन चोर । मन के मत चलिए नहीं, मन को कहूं न ठौर । । मन में तो पशुता भरी है, फिर प्रभुता ! मन की दो ही सम्भावना या तो पशु या फिर प्रभु । जो प्रभु से गिरा, वह पशु । जो पशु से उबरा, वह प्रभु | जी ओ डी गॉड और डी ओ जी डॉग । पतन और उत्थान के ये दो छोर हैं । तलहटी या शिखर । पतन या उत्थान । ढुलमुलपन नहीं चलेगा । और देखते नहीं हमारे भीतर पशु और प्रभु का कैसा संघर्ष चल रहा है ? प्रभुता पर पशुता कैसे दुश्वार हो जाती है ? अंधकार चिराग पर कैसे हावी हो जाता है? आखिर ऐसी कौनसी चीज है जिसे हम प्रभु कह सकें? और वे कौनसे कारण हैं जिनकी वज़ह से हमारे भीतर इतना वैमनस्य, घृणा, क्रोध, द्वेष बार-बार उभर आते हैं। आदमी नहीं चाहता कि वह बुरा सोचे या बुरा करे, लेकिन फिर भी बार-बार वह बुरा सोचता है और बुरा करता है । आपका यह साफ-सुथरा दिखाई देने वाला चेहरा, दिन में कितनी बार Jain Education International चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/७५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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