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सारी दुनिया जिसे गधा समझती है और जो गधे की गाली को बड़े ही प्रेम से स्वीकार कर सकता है, वही व्यक्ति आत्मदृष्टि से सम्पन्न हुआ कहलाता है। वही सम्यक्व को उपलब्ध हुआ कहलाता है। आप स्वयं कृष्ण, महावीर, बुद्ध हो सकते हैं। बुद्धत्व की पुनरावृत्ति होनी ही चाहिए। हम अगर परमात्मा न भी बन पाए, आत्मा भी बने रह गए, अन्तरात्मा भी पूरी तरह बने रह गए तो भी समझना कि काफी कुछ बन गए। मंजिल का लम्बा फासला पार कर लिया।
परमात्मा को खोजने के दो ही मार्ग हैं। दुनिया भर के जितने भी धर्म, मान्यताएं या परम्पराएं हैं उनको इन दोनों मार्गों में समाहित किया जा सकता है। प्रभु को पाने का पहला मार्ग है तुम स्वयं परमात्मा हो जाओ या जो परमात्मा हैं उनके प्रति पूर्ण समर्पित हो जाओ। या तो तुम सागर हो जाओ या फिर बूंद को सागर में समाहित कर डालो। गंगा जो बह रही है वह गंगासागर में विलीन होकर विराट हो जाए या गंगोत्री की ओर यात्रा करके अपने मूल अस्तित्व में लौट आए। अपने अस्तित्व का विस्तार ही मनुष्य का वर्धमान रूप है और अपने अस्तित्व का प्रतिक्रमण ही महावीरत्व है।
अपने अस्तित्व के विस्तार का नाम ही ब्राह्मणत्व है और अस्तित्व का संगोपन ही क्षत्रियत्व है। जो अपने पौरुष में विश्वास रखता है वह क्षत्रिय है। जो परमात्मा में विश्वास रखता है वह ब्राह्मण है। जो अपने मन पर विश्वास रखता है वह वैश्य है और जो व्यक्ति अपनी देह के प्रति आसक्ति रखता है वह शूद्र है। जन्म से तो हर कोई शूद्र होता है। ब्राह्मण भी जन्म से तो एक अर्थ में शूद्र ही होता है। ब्राह्मणत्व तो अर्जित करना पड़ता है। सौ में से पांच-दस लोग ही ब्राह्मण हो पाते हैं, कर्मजात ब्राह्मण । ऐसा ब्राह्मण तो, शूद्र भी हो सकता है। ब्राह्मण-कुल में जन्म लेने वाला शूद्र हो सकता है और शूद्र कुल में जन्म लेकर भी अपने कर्मयोग द्वारा ब्राह्मण हुआ जा सकता है। अपने ही पौरुष के द्वारा जब तक क्षत्रियत्व नहीं आएगा, राजपूताना लौ नहीं जगेगी तब तक कोई भी ब्राह्मण और ब्रह्म नहीं हो सकेगा। ब्रह्म में जीने वाला ही ब्राह्मण है। ब्राह्मणत्व का उपार्जन करना पड़ता है। यह मनुष्य का दूसरा जन्म है, अपने ही पौरुष से अपने को ही दिया गया पुनर्जन्म है।
___ परमात्मा को पाने का पहला मार्ग तो यही है कि तुम स्वयं परमात्मा हो जाओ। न परमात्मा की कोई भक्ति, न स्तुति, न प्रशंसा, न यशगान । तुम स्वयं ही परमात्मा बनोगे यही एक मात्र संकल्प रहता है। महावीर, बुद्ध और पतंजलि जैसे लोग तो स्वयं ही परमात्मा होने में विश्वास रखते हैं। वे कहते हैं परमात्मा
परमात्मा : चेतना की पराकाष्ठा/५६
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