Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 64
________________ जहाँ से जा रहे हो और जहाँ पर जा रहे हो वहाँ पहुँचोगे, लेकिन जहाँ पहुंच रहे हो वहीं दूसरा आदमी खड़ा है । वह भी परमात्मा को खोजने के लिए अपनी यात्रा प्रारम्भ कर रहा है। उससे पूछो कहाँ जाते हो, वह कहेगा वहीं पर जहाँ से तुम आये हो। फिर तो पहला व्यक्ति दूसरे स्थान पर और दूसरा व्यक्ति पहले स्थान पर परमात्म-स्वरूप को ढूंढता फिरेगा। तुम वहाँ, वह यहाँ । परमात्मा यहाँ भी है और वहाँ भी । जहाँ तुम हो, वहीं परमात्मा है । परमात्मा तुम्हारी आत्मा की आभा है, चेतना की पराकाष्ठा है । परमात्मा की यात्रा इन्द्रियों से नहीं, अतीन्द्रिय होती है । इन्द्रियों से हम प्रकृति की यात्रा कर सकते हैं, पदार्थ का अनुभव कर सकते हैं । परमात्मा देहातीत स्थिति है, इन्द्रियातीत स्थिति है । इन्द्रियों का सुख अनन्तः इन्द्रियों का ही है । तव मनुष्य को सुख इन्द्रियों में मिलेगा । अपनी खोपड़ी का कचरा वह दूसरे में भरना चाहेगा और दूसरे की खोपड़ी का कचरा अपने में भरेगा, सिर्फ स्थानान्तरण हो जाएगा। समापन नहीं होगा कचरे का, कषाय का । इसलिए जब कोई व्यक्ति बहुत तनाव में होता है, घबरा जाता है, तो अपने पड़ोसी के घर जाकर अपनी व्यथा सुनाता है और अभी उसकी व्यथा-कथा समाप्त भी नहीं हो पाती कि पड़ोसी अपनी राम - कहानी सुनाने लग जाता है । तुम उसको रोते हो और वह तुमको रोता है । हालत बिल्कुल ऐसी हो जाती है कि जब अकबर और बीरबल दोनों गड्ढे में गिर जाते हैं। एक कीचड़ के गड्ढे में गिरता है और एक अमृत के गड्ढे में, और दोनों एक दूसरे को चाटते फिरते हैं । तुम अपनी खोपड़ी का कचरा दूसरे के घर में डालते हो और दूसरे का अपने घर में ले आते हो । तुमने यह बात तो सीख ली कि पानी उबालकर, छान कर, प्रासुक पानी पिओ । जब बिना छाना पानी पीना तुम अधर्म समझते हो तो बिना समझे, बिना सोचे - विचारें किसी के विचारों को अपने दिमाग में ले लेते हो क्या यह अधर्म नहीं हुआ ? किसी के विचारों को भी प्रासुक करके स्वीकार करो। बोलने का हक तो सभी को है, लेकिन उतना ही स्वीकार करो जितना सार्थक हो । 'सार - सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय।' उन विचारों को ग्रहण करो जिनसे आपकी वैचारिक शक्ति बढ़े। उन्हीं विचारों को स्वीकार करो जिनसे आपकी मानसिकता निर्मल और तनावमुक्त बने । वे विचार स्वीकार्य हैं, जो व्यावहारिक हों, तुम्हें प्रवुद्ध बनाए। यदि तुम किसी के पास जाते हो और वहाँ निंदा के शब्द मिलते हैं तो वहाँ जाने का क्या अर्थ हुआ ? हमारी सारी यात्रा इन्द्रियों की है । हम बाहर देखते हैं, सुनते हैं, पसंद Jain Education International चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / ५६ www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only

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