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नहीं कि अपनी दिशा में न देखो। हकीकत तो यह है कि जब तक व्यक्ति ने अपनी ग्यारहवीं दिशा में, अपनी अन्तरदिशा में परमात्मा की धड़कन नहीं सुनी, परमात्मा का स्पंदन अनुभूत नहीं किया, जब तक हमारा चित्त विकार-विहीन न हुआ तब तक उसे दूसरे में भी परमात्मा दिखाई दे जाए यह बहुत मुश्किल है। अन्यथा तुम किसी भी धर्म-स्थान में जाओगे मन तो अपनी तरकीबें ढूंढ लेगा। मन का कार्य ही तरकीब निकालना है। जो तरकीबें निकालता रहता है वह मन
है।
दूसरे के मन के मुताविक कोई वात कह दी तो वह करने को तैयार हो जाएगा। अगर मन मुताविक वात न हुई तो वह तरकीबें ढूंढेगा। मैंने सुना है, एक पोते ने अपने दादा से पूछा आप घर में कुकर क्यों नहीं ले आते? दादा ने कहा, वेटा इसलिए क्योंकि कुकर दिन-दहाड़े अपनी वहू-बेटियों को सीटी बजाता है। मन खूब तरकीबें निकाल लेता है। उसे कुकर नहीं लाना है तो वैसी तरकीब सोचेगा और लाना है तो पैसे के इन्तजाम की तरकीब सोचेगा।
ध्यान का कार्य मनुष्य को अपनी ही अन्तर-दिशा की ओर प्रेरित करना है। जव कोई व्यक्ति अपनी ही अन्तर-दिशा में झांकता है और पूछता है 'मैं कौन हूँ' 'कोऽहम्' तो एक जवाव आता है। हकीकत में अगर जानना चाहते हो तो देखो। आज जो स्थिति है। आज तुम बूढ़े हो साठ वर्ष के। अपने भीतर झांको और पूछो 'मैं कौन हूँ', 'मेरा अतीत क्या रहा?' तो पता चलेगा कि पहले मैं युवक था। इससे पहले क्या थे एक चंचल बच्चा, बच्चे से पहले क्या थे? माँ के गर्भ में रहा। माँ के गर्भ में जब प्रवेश कर रहे थे तब सिर्फ एक अणु थे। अणु से पहले, वीज से पहले क्या थे, वो थे जो आज तुम स्वयं हो। आज तुम जो भी हो एक वीज के विस्तार हो। एक अणु के विस्तार हो। यह अणु इतना विराट हो सकता है। और जब एक अणु, एक पुद्गल फैलते-फैलते इतना बड़ा हो सकता है तो अपनी अन्तश्चेतना जाग्रत हो जाए तो वह परमात्मस्वरूप क्यों न हो पाएगी।
अभी तो परमात्मा की प्रार्थना भी कितावों की पढ़ी-लिखी प्रार्थना है। अभी जो दोहराते हो वह शब्दों का दोहराना है परमात्मा के प्रति प्यास नहीं है। किसी ने कहा और मंदिर जाना शुरु कर दिया। अपनी प्यास से मंदिर नहीं गए। आलमारी की किताबों ने कितना वोझ कर दिया है। हमारे भीतर सत्य की अभीप्सा, कहीं कोई प्यास जन्म ही नहीं ले पा रही है। हमारी प्यास दमित इच्छा की तरह हो गई है। हमारी अभीप्सा भीतर की अन्तरात्मा में कुंठित और दमित
चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/६१
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