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जीवन के तानपूरे के तारों को न तो अधिक कसो और न अधिक ढीला छोड़ो। यदि ढीला छोड़ा तो जीवन असंयम के मार्ग पर जाकर सिर्फ प्रवृत्ति ही प्रवृत्ति के मार्ग से गुजरते हुए न जाने किस गड्ढे, खंडहर या नाली में डुबा देगा। इसलिए तारों को साधना है।
___ यह ध्यान-शिविर आपको तारों को साधने की कला सिखाता है। ध्यान-शिविर आपको भगवान नहीं बनाता लेकिन इन्सान जरूर बनाता है। इन्सान पूरी तरह इन्सान बन जाए यही जीवन का महान् धर्माचरण होगा। तुम जैन, हिन्दू या मुसलमान बनो या न बनो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महत्वपूर्ण यह है कि तुम एक अच्छे आदमी बने या न बने। एक अच्छा आदमी स्वतः ही अच्छा जैन, अच्छा हिन्दू या अच्छा मुसलमान बन जाएगा।
अच्छा इन्सान वही बनता है जो दोनों अतियों को छोड़ देता है । मध्यमार्ग, बिल्कुल रस्सी पर नृत्य करने वाले नट की तरह । जो दायें और बायें सन्तुलन बनाए रखता है | जीवन में भी दोनों ओर संतुलन चाहिए, समत्व चाहिए, सामायिक चाहिए। संतुलन ही संयम है या यह कहिये कि संयम ही संतुलन है। हमारी आदत अतिवादिता की है। संसार में जाते हैं तो पूर्ण भोग की सामग्री के लिए प्रेरित किया जाता है और अगर किसी धर्मस्थान में जाते हैं तो पूर्णतया त्याग करने की बात की जाती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य दोहरेपन में जीता है। वह कभी 'यह' और कभी 'वह' की दुविधा में फंस जाता है। स्थितियाँ बदलती रहती हैं। उसकी मनोदशा आत्मघातक हो जाती है। भीतर से और बाहर से मनुष्य के दो टुकड़े कर उन्हें आपस में संघर्षरत रखती है।
इतने अधिक कसो मत निर्मम, वीणा के हैं कोमल तार, टूट पड़ेंगे वे सब के सब, कभी न निकलेगी झंकार | इतने अधिक करो मत ढीले, वीणा के रसवंती तार, कोई राग नहीं बन पाए, निष्फल हो स्वर का संसार । ।
अपने जीवन की वीणा के तारों को इतना भी मत कसो कि ये तार ही टूट जाएं या इतना ढीला भी मत छोड़ो कि स्वर का संसार, संगीत का साम्राज्य ही खो जाए।
भगवान बुद्ध ने तीस वर्षों तक निरन्तर साधना और तपस्या की लेकिन जब उन्हें परम ज्ञान घटित होने को आया तब पनिहारिन के द्वारा गाई गई यही पंक्तियाँ बुद्ध के लिए परम ज्ञान का निमित्त बनती हैं। अपनी वीणा के तारों को चेतना का ऊर्ध्वारोहण/३४
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