Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 47
________________ हूँ? विनोबा ने कहा, हां मैं झाडू लगा रहा हूँ और माला गिन रहा हूँ । झाडू लगाते हुए बावन तिनके गिरे और मैंने बावन बार राम का नाम लिया है। मेरे लिए आज बावन बार गिनना माला हुई । पौंछा लगाते वक्त बीच में चार मकोड़े और तीन चिंटियाँ आईं उनमें मैंने उसी आत्मा को देखा जो मुझमें हैं । उनमें भी वही प्रभु है जो मेरे अन्दर है । उन चींटी और मकोड़ों को देखते-देखते मेरा ध्यान हो रहा था । झाडू लगाना भी ध्यान हो सकता है। जब तुम चींटी और कीड़े में भी परमात्मा को देख लेते हो तो ध्यान सध रहा है। ध्यान जारी है । झाडू लगाना भी समाधि हो सकता है। ध्यान, कर्म से, श्रम से कभी विमुख नहीं करता । यदि ध्यान आपको निष्क्रिय बना दे तो वह जीवन को मृत्यु प्रदान करेगा, ऊर्जा नहीं । हमें तो कर्मठ होना है, श्रमशील होना है । आज ध्यान किया तो जो कार्य कल तक चार घंटों में करते रहे वह आज दो घंटों में करो और शेष दो घंटों में वह करो जो अब तक नहीं कर पाए । स्वयं का विस्तार करो, अपनी ऊर्जा का अधिक संपादन व समीकरण करो। तुम्हारा लिखना, बोलना, झाडू लगाना, भोजन करना सभी ध्यान हो जाए। जिस दिन ऐसा होगा उस दिन तुम्हारा घर भी मंदिर हो जाएगा । झाडू लगाना भी तुलसी, चन्दन और रुद्राक्ष की माला बन जाएगा । और अगर माला फेरना ही प्रभु-भक्ति है तो मणिये लुढ़कते जाएंगे और कबीर जैसे लोग मजाक उड़ायेंगे 'मनवा तो चहुं दिसि फिरै' । गिनती पूरी हो जाएगी, हल कुछ न निकलेगा । एक ही काम होगा या तो राम का स्मरण होगा या माला फिरेगी। अगर यह सोचो कि माला भी फिरती जाए, एक सौ आठ मणियों की गिनती भी हो जाए, भगवान का नाम भी हो जाए, नीचे आसन बिछाकर बैठ गए तो सामायिक भी हो जाए, पड़ोस में कहीं कुछ हो रहा हो तो उसकी तरफ भी झांक लिया जाए, मन बन गया तो किसी से बात भी कर ली जाए, अगर इतनी सारी चीजें होती हैं तो वह न ध्यान हुआ और न सामायिक हुई। वह तन्मयता नहीं हमारे मन की व्यग्रता होगी। तब वह ध्यान, शुक्ल ध्यान नहीं, आर्त और रौद्र ध्यान हो जाएगा। इसलिए एक मन और एक काम । जो भी कार्य करेंगे एक मन से, तन से, वचन से, त्रिविधकाय योग से करेंगे। यह सूत्र ध्यान में रखिए एक काम एक मन । यही व्यक्ति के लिए तन्मयता है, रसमयता है । यदि ऐसा हो जाए तो प्रभु की सेवा हो जाएगी, प्रसाद चढ़ाना हो जाएगा। भोजन भी यह सोचकर स्वीकार चेतना का ऊर्ध्वारोहण / ४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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