Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 45
________________ हमें यह प्रेरणा मिले कि हमारे भीतर भी जरा-सा दाग नहीं लगना चाहिए। वस्त्र तो प्रतीक हैं। उज्ज्वल स्वयं को बनाना है। चित्त को शान्त करो और भीतर की शांति में उतरो। धरती को ऐसी ही शांति की जरूरत है, जो भीतर की शांति का प्रतिबिम्ब बने । धरती को भीतर की उज्ज्वलता चाहिये। भीतर की वह गहरी शांति धरा पर लायी जानी चाहिए | नासिकाग्र पर दृष्टि केन्द्रित करके अपनी लेश्याओं को देखा जा सकता है कि आज हमारी स्थिति क्या है? हम अपनी वर्तमान स्थिति को ध्यान से जान सकते हैं। जब हम ध्यान में बैठते हैं तो अपने चित्त और मन का प्रवाह दृष्टि के द्वारा नाक पर केन्द्रित करते हैं। हमारा रंग और रोशनी भीतर की चेतना के द्वारा नाक पर आती है तब हमें पता चलता है कि इस समय हमारा आभामंडल (ऑरो) कैसा है! हमारी चेतना की स्वच्छता, पवित्रता कैसी है।. यह एक प्रकार की किरलियान फोटोग्राफी हुई जो हम अपनी ही नासिकाग्र पर देख सकते हैं। अपनी गहरी होती दृष्टि से अपनी ही पहचान । सुबह जब सोकर उठते हो तो ध्यान से देखो तुम्हें अपने चारों ओर किरणों का समूह, एक आभामंडल दिखाई देगा। हम महान संतों रहीम, कबीर और महावीर, बुद्ध के पीछे एक आभामंडल घूमता हुआ देखते हैं। यह प्रतीकात्मक है। आज का विज्ञान तो कहता है यह आभामंडल पेड़-पौधों के आसपास भी देखा जा सकता है। आभामंडल का अर्थ है हमारी वह चेतना जो हमारे शरीर के रोम-रोम से बाहर की ओर बहती है। जिस प्रकार शरीर के छिद्रों से बाल निकलते हैं, पसीना बहता है उसी प्रकार ऊर्जा भी बाहर प्रवाहित होती है और हम जान जाते हैं कि हमारी चेतना की कैसी स्थिति है। यह अत्यन्त वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। जब हम अपनी दृष्टि को नासिकाग्र पर केन्द्रित करते हैं तब श्वांस के द्वारा हम धीरे-धीरे भीतर जाते हैं और हमारा चित्त जगता है। हम अपने मन को कुरेदते हैं। जब हम शांत होते हैं तब मन को जगाते हैं। सोया हुआ चेतन तत्व जगता है, हमारा अवचेतन मन जगता है। इस समय जो चेतन मन दिखाई देता है वह बिल्कुल थोड़ा-सा होता है। इससे अधिक मन और चित्त हमारे भीतर सोया हुआ है। चेतन मन जो हमें बाहर दिखाई देता है वह बिल्कुल ऐसा है जैसे सागर में कोई द्वीप उभर कर आया हो। बाहर जो मिट्टी-पत्थर या भूमि दिखाई देती है उससे कई गुना अधिक तो सागर में भीतर समाई रहती है। हमें अपने मन की जो अनुभूति होती है वह सागर में पड़े हिमखण्ड के समान है जो बाहर कम और चेतना का ऊर्ध्वारोहण/४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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