Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 44
________________ लेकिन इतना तो पता है कि आज दुनिया नर्क में जी रही है। यदि इस जीवन को स्वर्ग बना सकें तो बहुत बलिहारी होगी। वर्तमान जीवन को स्वर्ग बनाना महान कृतपुण्यता होगी। मरने के बाद तो सब कुछ माटी में समा जाएगा। जो होना होगा सो होगा। भविष्य को अगर स्वर्ग बनाना है, मरणोपरान्त स्वर्ग पाना है तो वर्तमान को स्वर्ग बनाना होगा, जीते-जी स्वर्ग को उपलब्ध करना होगा। धर्म जीवन्त होना चाहिए, पूरी तरह से चैतन्य होना चाहिए। स्वर्ग और नरक चित्त के ही अलग-अलग टापू हैं। चित्त की संस्कार-धारा के साथ स्वर्ग और नरक भी साथ-साथ चलते हैं जन्म-जन्मांतर से, जन्म-जन्मांतर तक। चित्त का लेश्यामंडल, मनुष्य का भावमंडल निर्मल हो, भीतर का स्वर्ग और भीतर का मंदिर ईजाद हो, ध्यान करने के पीछे यही हेतु है। लेश्यामंडल के वर्तुलों को, उसके रंगों को पहचानने के लिए ही नासाग्र पर दृष्टि-ध्यान करने की बात कहता नासिकाग्र पर दृष्टि का केन्द्रीकरण महान साधना है और अत्यन्त वैज्ञानिक है। जब कोई व्यक्ति दृष्टि को नासिकाग्र पर केन्द्रित करता है अत्यन्त गहराई के साथ, तो जिसे मनोविज्ञान ने, फ्रॉयड ने ऑरो कहा है, जो किरलियान फोटोग्राफी के द्वारा प्राप्त होता है, वह ऑरो किसी मशीनी यंत्र में नहीं हमारी अपनी दृष्टि में है। जब हम अत्यन्त गहराई और एकाग्रता के साथ नासिकाग्र पर दृष्टि केन्द्रित करेंगे तो वहाँ एक वर्तुल घूमता हुआ दिखाई देगा। हम पहचानेंगे कि हमारा रंग कितना साफ है या कितना कल्मष भरा है। ___ महावीर ने एक अच्छा शब्द दिया, लेश्या । पंतजलि ने जिसे वृत्ति कहा, महावीर उसी को लेश्या कहते हैं। लेश्या का अर्थ होता है जो घेर ले, हम पर हावी हो जाए, जो हमें आश्लिष्ट कर ले । व्यक्ति की वृत्ति, लेश्या जितनी निर्मल होती चली जाती है, विकार-विहीन होती चली जाती है उतनी ही अधिक विशुद्धि और पवित्रता हमारी चेतना में आती है। लेश्याएं शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकार की होती हैं। लेकिन शुद्धता लेश्याओं से मुक्ति नहीं है। लेश्याओं का सम्बन्ध रंग के साथ जोड़ा जाता है। वे काली, नीली, कबूतरी, गुलाबी, पीली और सफेद होती हैं। ध्यान-शिविर में यह जो श्वेत वस्त्रों का प्रावधान है, हालांकि वेषभूषा अधिक महत्व नहीं रखती, लेकिन फिर भी श्वेत, जैसे शुक्ल लेश्या प्रतीक है कि लेश्याएं पवित्र और निर्मल होनी चाहिए, ऐसे ही हमारी पोषाक भी उतनी ही स्वच्छ और निर्मल होनी चाहिए। जैसे हम सफेद वस्त्रों पर छोटा-सा दाग भी स्वीकार नहीं करते हैं ठीक वैसे ही चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/३६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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