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को भा जाए वही ठीक । यदि अप्सरा भी हो मगर दिल को पसन्द न आए तो उसका क्या अर्थ ? मन तो हजार बातें सोचता है लेकिन हृदय ! वह तो जहाँ टिका, बस टिक गया । लगा तो लगा ही रहा, सोचने का काम मन का है, स्वीकार करने का काम हृदय का है । हमारे जीवन का केन्द्र - बिन्दु हमारा हृदय है । किन्तु मन के सामने तो भौगोलिक नक्शे भी छोटे पड़ जाते हैं, इतना बड़ा साम्राज्य है मन का । मन अगर हृदय हो जाये और हृदय अगर फूल जैसा खिल जाये, तो साधना पूरी हो गई । हृदय का खिलना ही समग्रता है। खिला हुआ हृदय ही जीवन का आनन्द है ।
मन का साम्राज्य अत्यन्त विस्तृत है । मन से अधिक संहारक शस्त्र कोई नहीं है । इसी मन के सामने दुनिया के सभी शास्त्र बौने हो जाते हैं । यह काट भी सकता है और तार भी सकता है । यदि मन सम्यक दिशा प्राप्त कर ले तो अपनी प्रचण्ड ऊर्जा के द्वारा जीवन की महान सम्भावनाओं को आत्मसात् करवा सकता है । इतनी महान सम्भावनाएं कि आदमी अपनी उन सम्भावनाओं को देखकर खुद ही दंग रह जाए। अगर अच्छी सम्भावना जग गई तो अशोक और गांधी बन जाओगे और बुरी - ही - बुरी सम्भावनाएं जगती रहीं तो स्टेलिन और हिटलर हो जाओगे । अच्छी और बुरी सम्भावना ही तो नारी में माँ और प्रेमिका का रूप दिखाती है । हमारे भीतर दोनों प्रकार की सम्भावनाएं हैं ।
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मन की तो दो ही भूमिकाएं होती हैं एक तन्मयता और दूसरी व्यग्रता । जब मन तन्मयता से गुजरता है तो हृदय हो जाता है और व्यग्रता से गुजरने पर मन, मन हो जाता है । व्यग्रता को तन्मयता में बदला जा सकता है।
रसमयता पहला सूत्र है । दूसरा सूत्र मन का निरीक्षण करते रहना है। अगर मन से अलग होकर मन का प्रतिदिन पन्द्रह मिनट निरीक्षण करो, तो मन की व्यग्रता, उद्विग्नता शांत होगी। तीसरा सूत्र है अपने व्यग्र मन को प्यार की, मैत्री की, मस्ती की भाषा सिखाओ। किसी और के क्रोध को अपने लिए कसौटी समझो और अपने भीतर क्रोध न हो, इसके लिए मन को प्रेम की भाषा सिखाओ । शांति से बोलने और सोचने का पाठ पढ़ो ।
मन तुम्हारे कहने में नहीं चलता है, इसका मतलब है तुम मन को सही ढंग से समझा न पाये । मन किसी की याद में तड़पता रहे, मन दिन-रात बेमतलब सोचता रहे, झट से उब्दीग्न, व्यग्र या कुंठित हो उठे, तो यह हमारा आन्तरिक गंवारूपन है ।
आखिर यह मन क्या है ? हमारे भीतर की चेतना जो बाहर की ओर
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चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ / ३७
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