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से उत्तर मिलेगा। आप अपने भीतर जीने का प्रयास कीजिए तब आपको अपने प्रश्न का सही जवाब स्वयं से मिलेगा श्रीमान विजय बाफना।
क्या 'ओम का जाप, समय मिले तो ऑफिस, व्यवसाय आदि के स्थान पर किया जा सकता है? - भंवरलाल दवे धर्म के लिए कोई स्थान नहीं होता। जितने क्षणों के लिए तुम धार्मिक होते हो उतनी देर के लिए तुम जहाँ होते हो वह स्थान मंदिर हो जाता है। मैं यही निवेदन करना चाहता हूं कि जब आप ऑफिस में रहें, अपने व्यवसाय में रहें, उस समय भी अगर आप ध्यान में जीते हैं, तो यही अध्यात्म का जीवन में क्रियान्वयन है, यही जिंदगी की जिंदादिली है। यही तो चाहता हूं कि येन-केन-प्रकारेण व्यवसाय करते हुए भी वही भाव जग जाए, उतने ही रस से जितने रस से आप यहाँ डूबे हैं। किसी से मिलो तो इतने प्रेम और ध्यान से मिलो कि वह चौंक जाए कि आज मैं किसी से मिला था। भुलाए न भूल पाए आपको। अगर बीमार हो जाओ तो उस बीमारी को भी इतनी मस्ती से, इतने साक्षीभाव से भोगो कि उस बीमारी को भोगते हुए लगे कि शरीर में कैसे, क्या-क्या दिखाई पड़ रहा है। कभी यह भाव मत लाओ कि मेरे भीतर यह घटित हो रहा है। यह देखने का प्रयास करो कि शरीर के इस अंग में दर्द हो रहा है। साक्षीत्व का उदय वहीं होता है जब व्यक्ति पांव में उठने वाले दर्द को भी देखता
अपने सामने से अर्थी गजर जाए तो पहला काम है देखो, दूसरा काम है सोचो। मैंने कहा कि धर्म उन लोगों के लिए है जिनके दिलों में प्रकाश के लिए प्यास है, सत्य के लिए, अन्तर-आनन्द के लिए कोई अभीप्सा है। यह अभीप्सा और प्यास तभी जगती है जब व्यक्ति देखता है और सोचता है। जो सोचता है तत्काल कुछ घटित होता है। अगर पास से अर्थी गुजर जाए तो देखा, पर केवल देखना ही काफी नहीं है। देखा तो सम्यक् दर्शन जरूर हुआ, पर सोचो। जैसे ही सोचने लगते हो तुरंत लगेगा यह अर्थी तो मेरी ही है। जिस क्षण यह बोध होगा कि यह अर्थी तो मेरी है, शरीर कंपेगा और एक प्यास की किरण पैदा होगी। आदमी झनझनाएगा, फिर से दुनिया की प्रवृत्तियों में लग जाएगा। फिर जब कोई अर्थी देखेगा, पुनः सोचेगा और वह सोच शरीर के प्रति रहने वाले तादात्म्य
अमृत की अभीप्सा/१२
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