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चित्तशुद्धि का सम्बन्ध हमारे जीवन-मूल्यों के साथ है, अन्तर-निरीक्षण के साथ है। मनुष्य को निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए। जैसे आज आपने स्नान किया, दिन भर मेहनत की, पसीना आया, माटी लगी, कल फिर सुबह स्नान किया। यह सुबह स्नान का क्रम जैसे जीवन भर जारी रहता है, वैसे ही चित्तशुद्धि का उपक्रम भी जीवन भर जारी रहना चाहिए। हमें सतर्क रहना है कि हम चित्त में शुद्धता-पवित्रता रखेंगे। माना कि किसी के भीतर कोई विकार उठता है, लेकिन उसके मन में अगर मर्यादा बन गई है, एक संकल्प जग गया है पवित्रता के साथ, फिर वह डांवाडोल न होगा। तुम सोचते हो कि मेरी पत्नी ही सिर्फ मेरी पत्नी होगी शेष सभी नर-नारियाँ मेरे भाई या बहन होंगे, संकल्प के साथ, लेकिन सुन्दरता को देखते ही यह भाई और बहन न जाने कहाँ विलीन हो जाते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। चित्त की शुद्धता इसलिए जरूरी है रश्मि! ताकि हमारी दृष्टि पवित्र रहे, हमारे विकल्पों में अन्यथा-भाव पैदा न हों। भीतर और बाहर के जीवन में दोहरापन न हो, एकरूपता आ जाए। चित्त-शुद्धि से जीवन में समरसता आ जाए। इसलिए चित्तशुद्धि अनिवार्य है। हमारा तनाव कम हो, हमारे अन्दर आनन्द घटित हो, हमारे विकार कम हों, हममें पवित्रता आए। अगर ऐसा होता है तो एक समझदार आदमी गरीब होने के बावजूद अपने मस्तिष्क के संतुलन को बिगड़ने नहीं देता और दूसरा नासमझ व्यक्ति अमीर होने के बावजूद अपने मानसिक संतुलन को बिगाड़ देता है। यहाँ कितने ही व्यक्ति गरीब-अमीर होते हैं पर यह स्थिति नित्य, ध्रुव और शाश्वत नहीं है। सब चीजें बदलती रहती हैं। जो व्यक्ति विषम और विपरीत परिस्थितियों में भी अपने मानसिक संतुलन को बनाये रखता है, वहीं चित्त-शुद्धि है। कल तुम गरीब थे और आज अमीर हो गए हो तो सबकी उपेक्षा करते हो। अपने को अलग समझते हो। कल जिनके साथ रहते थे, आज छोड़ चुके हो। पर मत भूलो आने वाले कल में फिर वही स्थिति आ सकती है। वह बीता हुआ कल दोहरा भी सकता है, वापस भी आ सकता है, पुनरावृत्ति भी हो सकती है। इसलिए किसकी उपेक्षा? सबके प्रति समानता, वही प्रेम का भाव, वही मैत्री-भाव । अगर ऐसा है हमारा विवेक, संजीवितसक्रिय है तो हम विपरीत और अनुकूल दोनों परिस्थितियों में बहुत
चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/२७
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