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भीतर बैठा हुआ चित्त का स्वामी जैसा आदेश देता है, हम वैसा ही करते हैं। अगर चित्त का स्वामी मधुशाला जाने का आदेश देता है, यह मधुशाला के ख्वाब देखता है। मंदिर जाने की इच्छा होती है तो मंदिर के स्वप्न देखता है।
___ भीतर के स्वामी में इतनी विकृतियाँ हैं कि यह प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। हम हमेशा यही सोचते हैं (जो बहुत बड़ी भूल है) कि मन से परेशानियाँ उत्पन्न होती हैं इसलिए मन को एकाग्र करो, मन को टिकाओ, इसे साफ करो । मन तो बेचारा नौकर है। उसे कहाँ साफ करोगे? यह मन कोई दर्पण नहीं है, जिसे धो-पौंछ लो। दर्पण तो वह चित्त है जहाँ शुद्धि और अशुद्धि की सम्भावनाएं हैं। जहाँ शुभ-अशुभ, मंगल-अमंगल, धर्म-अधर्म की समस्त सम्भावनाएं छिपी हुई हैं। इसलिए चित्त को शुद्ध करना है। चित्त को शुद्ध करने के लिए ही ध्यान के प्रयोग हैं।
इस संकल्प के साथ हमें ध्यान में प्रवेश करना है कि मैं अपने चित्त को शुद्ध करने के लिए ही ध्यान का प्रयोग कर रहा हूं। यदि आप इस संकल्प के साथ ईमानदारी से ध्यान में प्रविष्ट होते हैं तो निश्चित रूप से तीन दिन पश्चात् आप अपने ध्यान के पूर्व और ध्यान के पश्चात् वाले जीवन में स्पष्ट फर्क पाएंगे। मेरा विश्वास जीवन-रूपान्तरण में है। मेरे लिए दीक्षा का भी यही अर्थ है कि व्यक्ति का जीवन बदल जाए। चोटी खींचने का या वेश बदलने वाले संन्यास का मेरे लिए अधिक अर्थ (मूल्य) नहीं है। अगर ऐसा हो सके तो अहोभाग्य की बात! लेकिन, अगर जीवन बदल रहा है, हृदय साधु हो रहा है, जीवन स्वर्ग हो रहा है, इतना पर्याप्त है।
मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा।
मन न रंगाया, सिर्फ कपड़े रंगते चले गए। प्रयास यह हो कि हमारा मन सम्यक-दिशा स्वीकार करे। हमारी दमित इच्छाएं कभी भी उपभोग से पूर्ण नहीं होंगी वरन उपभोग से वह बलवान और सशक्त हो जाएगी, एक अभ्यास आदत बन जाएगी और पता ही नहीं चलेगा कि कभी कोई इच्छा थी। इसलिए शोधन की, चित्त-शुद्धि की प्रक्रिया अपनानी होगी।
हम सुबह और शाम को जो ध्यान करेंगे उसका खास उद्देश्य यही है कि व्यक्ति के चित्त की शुद्धि हो, विकार हटें और अच्छी सम्भावनाएं जाग्रत हों। हमारे जीवन में आनन्द और खुमारी उमड़ पड़े। एक अहोभाव जग जाए। हम इतने पवित्र और निर्मल हो जाएं कि अपने और पराए का भेद मिट जाए। न अपने लिए बुरे-अच्छे रहें और न दूसरे के लिए बुरे-अच्छे रहें। एक स्थितप्रज्ञता
मनुष्य का अंतरंग/२४
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