Book Title: Chetna ka Vikas
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 22
________________ साम्राज्य है। अब ये परिभाषाएं बदल चुकी हैं। आस्तिक वह है जो स्वयं के प्रति विश्वास रखता है। नास्तिक वह है जिसका स्वयं से विश्वास उठ गया है। अगर मंदिर में या संतों-महंतों को मत्था टेकना ही आस्तिकता हो, तब तो यह आस्तिकता और धार्मिकता बहुत सरल और सस्ती है। माथा नवाने में क्या लगता है? किसी साधु को देखा नहीं कि लगा दी धोक। लेकिन वही संत तुम्हें कहे कि जरा, यह काम करते जाओ। तुम तुरंत कहोगे दुकान पहुंचना है| मस्तक नवाना कुछ कठिन नहीं है। लेकिन कोई संत किसी अच्छे कार्य में तुम्हारा सहयोग चाहे तो कहोगे, अभी पत्नी से या बच्चों से पूछना पड़ेगा। तुम्हारे धन से, समय से, परिवार से, सभी से सस्ता तुम्हारा मस्तक है। मस्तक को नवाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। अगर तुम किसी के पांवों में झुक भी गए तो क्या फर्क पड़ता है! व्यक्ति के लिए केवल मस्तक नवा लेना ही काफी नहीं होता, उसकी आस्तिकता तो उसके स्वयं के भीतर से प्रगट होती है। अभी तक आपने यही सुना है कि उस अज्ञात लोक में रहने वाली, किसी अदृश्य सत्ता के प्रति अपना विश्वास रखो। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि सबसे पहले खुद के प्रति विश्वास जगाओ। धर्म की शुरुआत परमात्मा से नहीं होती, धर्म की शुरुआत स्वयं से होती है। अध्यात्म का प्रवर्तन किसी शास्त्र से नहीं, अपनी ही आत्मा से होता है। इसलिए जब मैं 'आत्म-दर्शन' की बात कहता हूँ तो यह कोई काल्पनिक आत्मा नहीं है। अपने-आप को देखने की बात है। आत्म-दर्शन अपने भीतर की सच्चाई को जानना, परखना और निरीक्षण करना है। ध्यान में, काल्पनिक या शब्द से बंधी हमारी आत्मा, चेतना या ऊर्जा को मुक्त करते हुए, व्यक्ति को उस सच्चाई का पता लगाना है जो उसके स्वयं के भीतर है। इसलिए ध्यान में किसी ने अपने भीतर छिपी दमित इच्छाओं को देखा है तो मेरे देखे उसने आत्म-दर्शन किया है। यदि कोई अपने भीतर के क्रोध को पहचान रहा है तो मेरी दृष्टि में उसने आत्म-ज्ञान की ओर कदम बढ़ाया है। उसने अपने आपको जाना है, पहचाना है कि आज मेरी क्या स्थिति है। यही उसका आत्म-दर्शन या आत्म-ज्ञान है। आत्म-ज्ञान आखिरी भूमिका नहीं है । आत्म-दर्शन और आत्म-ज्ञान अध्यात्म के प्रथम चरण हैं। आत्मा अर्थात् तुम स्वयं, तुम जो हो। इस शरीर या मन, वचन, चित्त और चेतना से हटकर आत्मा नहीं है। आत्मा सबमें घुली-मिली है। बीज में से न जाने कितनी चीजें खिल-खिलकर आती हैं। बीज सबमें है, बीज से खिली हर चीज में है। अगर कोई चाहे कि इन्हें अलग-अलग कर दें तो इन्हें चेतना का विकास : श्री चन्द्रप्रभ/१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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