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बारह
चारित्र चक्रवर्ती मैंने मुद्रक से कहा कि वो प्रेस कॉपी निर्मित कर ले। उसने उसमें असहमती जतलाई व कहा कि चूंकि इस कार्य में प्रुफ रीडिंग आदि की जटिलतायें काफी हैं, अतः यह कार्य आप ही कर के दें तो बेहतर होगा।
बस यहीं से मैं इस कार्य से संबंधित हुआ।
मेरे सम्मुख १६५३, १९७२ व १९६७ में प्रकाशित संस्करणों की तीन प्रतियाँ थीं। तीनों का मेल किया, तो मुझे तीनों के मध्य का संदर्भ समझ में नहीं आया ।। १९५३ को प्रति में मुद्रित आधे से अधिक अध्याय १६७२ की प्रति में नहीं थे॥दो अध्याय स्वाभाविक रूप से अधिक थे, जिनमें पहला आचार्य श्री की सल्लेखना का व दूसरा आचार्य श्री के संसर्ग में रहे श्रमणों व गृहस्थों के संस्मरणों का। किंतु आधे से अधिक अध्यायों का १९७२ की प्रति में अभाव होना मुझे आश्चर्य चकित कर गया। मैंने अनुमान लगाया कि संभवतः अगले प्रकाशकों ने पुस्तक की मोटाई से प्रभावित होकर, जिन अध्यायों का संबंध या तो आचार्य श्री से प्रत्यक्ष नहीं होगा अथवा न्यून होगा, उन्हें संपादित करके पृथक कर पुस्तक मुद्रित करवाई होगी। प्रथम संस्करण में कुल पृष्ठ संख्या ७८६+२० (प्रस्तावनादि के)= ८०६ थी॥ १९७२ में प्रकाशित पुस्तक में कुल पृष्ठ संख्या वह भी सल्लेखना व श्रमणों के संस्मरण युक्त होने के पश्चात् भी मात्र ५१७+४६ = ५६६ थी। इनमें से यदि सल्लेखना व श्रमणों के संस्मरण के पृष्ठों की संख्या को यदि हम कम कर देवें, तो कितने पृष्ठ प्रथम संस्करण से कम हुए उसकी संख्या आ जायेगी। सल्लेखना के कुल पृष्ठ ५० व श्रमणों के संस्मरण के पृष्ठ ६१ हैं। कुल संख्या १४१॥ ५१७ में से १४१ कम करने पर पृष्ठ संख्या प्राप्त हुई ३५६ ।। अर्थात् प्रथम संस्करण के कुल ७८६ पृष्ठों में से मात्र ३५६ पृष्ठ ही बाद के प्रकाशकों ने चारित्र-चक्रवर्ती के संस्करणों में मुद्रित करवाये थे व ४३० पृष्ठ संपादित कर छाँट कर पृथक कर दिये थे॥यह घटना सामान्य घटना नहीं थी॥ मेरे देखे प्रकाशित साहित्यों में तो प्रथम ही थी। मुझे प्रारंभिक विषयों के लिये, वे विषय जो कि तीनों प्रतियों में समान थे, १९५३ की प्रति उत्तम व अधिकारिक लगी, अतः उस अनुसार मेटर कम्पोजिंग का कार्य प्रारंभ करवाया।
कार्य काफी होने के पश्चात् मुझे ख्याल आया कि इसकी सूचना मुझे आदरणीय सेठी जी को दे देनी चाहिये।। ऊपर दर्शाये गये गणित अनुसार मैंने इसकी सूचना आदरणीय सेठीजी व बंबई में श्री भरत कालाजी को दे दी। दोनों को ही आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो गया !! सेठीजी ने अपनी ओर से सुझाव दिया कि चूंकि वे इस विषय में विशेष कुछ नहीं जानते, अतः श्री अभिनंदनजी दिवाकर, सिवनी से संपर्क करें।। मैंने उनसे संपर्क किया व चर्चा की। उन्होंने बतलाया कि १९५३ व १९७२ की प्रतियों में काफी अन्तर है। जो ४३० पृष्ठ छाँट कर पृथक कर दिये गये हैं उनका आचार्य श्री से कोई संबंध नहीं
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