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"हे भव्यात्माओं! तुम्हारी आत्मा सहज मल से मलीन है। उसकी शुद्धि हेतु शुद्ध स्वरूप अरिहंत प्रभु के साथ अपने अन्तःकरण को जोड़ो, प्रभु नाम स्मरण में मस्त रहो।"
“हे भव्यात्माओं ! तुम्हें अंततः सिद्ध स्वरूप प्राप्त करना है। अतः उनका निरन्तर ध्यान करते रहो।"
_“हे भव्यात्माओं! सभी जीव तुम्हारे उपकारी है अतः उनके कल्याणार्थ 'शिवमस्तु सर्वजगतः” की भावना नित्य रखो।"
"हे भव्यात्माओं! तुम्हारे आचरण से किसी जीव को असद्भाव धर्म के प्रति उत्पन्न न होने पाये, ऐसी सावधानी सदैव बरतो।"
_ “हे भव्यात्माओं! भाषा समिति के अभाव में बहुत कर्म-बन्ध हो रहा है। सदैव हित, मित, सत्य एवं पथ्य वचन ही बोलो।"
"तप का मूल धैर्य है।"
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