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जरूरत है, उस शक्ति को जागृत करने की, जो धर्म की साधना बिना संभव नहीं । "
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मनुष्य भव विना चारित्र संभव नहीं, चारित्र विना केवलज्ञान संभव नहीं, और केवलज्ञान विना मुक्ति संभव नहीं । "
यह हमारा सौभाग्य हैं कि सभी योनियों में श्रेष्ठ ऐसा मानव भव हमें सुलभ हुआ है फिर हम स्व आत्म-कल्याण का अवसर क्यों चूके ?
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इंद्रियाँ चपल घोड़े की तरह हैं, अगर उन्हें भडकाया गया तो वे कभी तुम्हें भव भ्रमण से मुक्त नही होने देंगी
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महाशय जी ! जब स्वयं अपने घर की सीढियाँ मैली हों तो, औरों की छत पर पड़ी गंदगी की शिकायत मत करो
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राग और द्वेष दोनों ही हमें संसार में भटकाने वाले महान् शत्रु हैं फिर भी हम उनसे नाता तोड़ते नहीं, क्या यह खेद जनक बात नही ?
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