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श्रुत ज्ञानी और श्रुत केवली को समान मानना है । गाथा में उल्लिखित भव्यसेन को भाव श्रमण पद प्राप्त नहीं हुआ बल्कि ११ अङ्ग और ९ पूर्व के पाठी होने पर सकल श्रुत ज्ञानी भी नहीं थे। इसका प्रभाव भगवान महावीर के उत्तराधिकारियों विशेषकर श्री कुन्दकुन्द का स्थान कहा था, इसकी जांच आगे की जायगी।
.. संस्कृत के संस्करण में प्राकृत गाथा का अनुकरण करने के लिए कुछ व्यर्थ शब्दों का प्रयोग किया गया है इनको जैसे का तैसा रहने दिया । पं० पारसदासजी का हिन्दी अनुवाद भावार्थ के रूप में है। श्री कुन्दकुन्द की रचनाओं पर प्राचीन टोकाएं संस्कृत में हैं, उनमें संस्कृत की छाया अवश्य है किन्तु अनुवाद का प्रश्न इन प्रशस्तियों में कभी नहीं उठा, यह एक प्रकार का तात्पर्य है । पं० पारसदास जी की टीका भी इसी बात का अनुकरण करती है, हाँ उसमें विस्तार कम कर दिया है और बहुत सी बढ़ी हुई बातें: इस आशय से छोड़ दी गई हैं कि विस्तार करने से पढ़ने वालों का ध्यान मूल पर न जायगा।
मेरा उद्देश्य अनुवाद को ठीक शब्दों में रखने का रहा है जिससे मूल गाथा का असली तत्व भंग न हो, सम्भव है कि कहीं पर उपयुक्त शब्दों का प्रयोग न हो सका हो।
'सूत्र पाहुड' की २४. २५ तथा २६ वीं गाथाएं अंग्रेजी अनुवाद में छोड़ दी गई हैं, जिसकी व्याख्या की आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में प्रवचनसार के मूल पर भी ध्यान देने की जरूरत है। प्राचीन हस्त लिखित प्रतियों में ये मूल साधारणतया श्री अमतचन्द्र अथवा श्री जयसेन की टीका की प्रशस्तियों से मिलता है ।
श्री अमृतचन्द्र ई० १००० से पहले हुए है। श्री जयसेनाचार्य ई० १२०० में । इन्होंने श्री अमृतचन्द्राचार्य की प्रशस्ति को देखा था, और बहुत हदतक उन्होंने इसका अनुकरण किया, किन्तु उनके मूल में २२ गाथाएं और बढ़ी हुई मिलती हैं। उन्होंने लिखा है कि श्री अमृतचन्द्र ने इन गाथाओं को छोड़ दिया था लेकिन इस विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया और न यह लिखा है कि जिन ग्रन्थों के आधार पर श्री जयसेन ने ऐसा लिखा है, क्या वे अमृतचन्द्र को उपलब्ध न थे। इन २२ अतिरिक्त गाथाओं में से ११ तो तीसरे अध्याय में २४ वी गाथा के बाद हैं, और यदि कोई प्रवचनमार को पढ़े तो यह गाथाएं एक दम अनुपयुक्त जान पड़ेंगी। गाथाएं स्त्रियों को मोक्ष न होने की पोषक हैं। एक गाथा दीक्षा के लिए जाति की महत्ता के सम्बन्ध में है । प्रवचनसार एक दार्शनिक ग्रन्थ है और उसमें
आवश्यक तत्वों की भी गन्वेषणा नहीं की गई जिनका उसमें वर्णन है। मैंने इन बातों का अनुकरण नहीं किया । जाति के सम्बन्ध की गाथा बिल्कुल अप्रासङ्गिक है, और अष्ट पाहुड की १-२७ वी गाथा की बिल्कुल विरोधी है कि जाति की आवश्यकता समाज संम्बन्धी कार्यों से है, आत्मज्ञान के लिए नहीं। भगवत कुन्दकुन्द